Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।१२९ - १३२) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
ये चारों श्लोक विषय - विरूद्ध होने से असंगत हैं । इनका इस अध्याय के सतोगुणवर्धन व्रत विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है । और ४।१३१ में मृतकश्राद्ध में खाने तथा मांस भक्षण की बात मनु की मान्यता से विरूद्ध है । और ४।१३० में देव, गुरू, स्नातक, आचार्य तथा यज्ञ में दीक्षित पुरूष की छाया का न लांघना भी अयुक्तियुक्त है । छाया के लांघने अथवा न लांघने से क्या पाप - पुण्य सम्भव है ? ४।१३१ में सन्ध्याकाल में चैराहों पर जाने का निषेध भी निरर्थक ही है । क्यों कि इसमें भी कोई - पाप - पुण्य की बात नहीं है । इस प्रकार के निरर्थक तथा मनु की मान्यताओं से विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।