Manu Smriti
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एतद्विद्वन्तो विद्वांसस्त्रयीनिष्कर्षं अन्वहम् ।क्रमतः पूर्वं अभ्यस्य पश्चाद्वेदं अधीयते ।।4/125
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।९५-१२७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये सभी श्लोक विषय बाह्य होने से प्रक्षिप्त हैं । इनका ‘सतोगुणवर्धन’ विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है । (ख) इन श्लोकों में ४।१०३ में तो ‘मनुरब्रवीत्’ कहकर प्रक्षेपक ने इन्हें मनुप्रोक्त कहने का दुष्प्रयास ही किया है । क्यों कि मनु ने स्वयं अपना नाम लेकर कोई प्रवचन नहीं किया । (ग) ४।१०४ श्लोक में शिष्यों को पढ़ाते समय विशेष अवकाशों का संकेत किया है, इनका गृहस्थ के व्रतों से क्या सम्बन्ध है ? इनका वर्णन तो पठन - पाठन विषय में (द्वितीयाध्याय में) तो संगत था, यहाँ नहीं । और वेदादि के पढ़ने में अवकाशों का निर्धारण मनु की दूसरी मान्यताओं से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता । मनु के अनुसार वेद का स्वाध्याय करना दैनिक कत्र्तव्य है । एतदर्थ १।८७-९०,२।१५,२।१०६,२।१०७,४।१९,४।३५ तथा ३।७५ श्लोक द्रष्टव्य है । किन्तु यहां वर्ष में साढ़े चार मास ही वेद पढ़ने का विधान किया है । और शुक्लपक्ष में वेद पढ़ना, कृष्णपक्ष में न नहीं बिजली चमक रही हो, गरज गरजकर वर्षा हो रही हो (४।१०३) तो वर्षा से भिन्न ऋतुओं में भी वेदों को न पढ़े । ४।१०५ में आकाश में उत्पातसूचक शब्द हो रहा हो, ग्रहों का परस्पर संघर्ष हो रहा हो, अथवा भूकम्प हो, तो वेदों को न पढ़े । ४।१०६ में होम की अग्नि प्रज्वलित करते समय, सूर्य की ज्योति रहने पर, वेदों को न पढ़े । इस प्रकार के अवकाशों का विधान मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकता । क्यों कि इनका दैनिक महायज्ञों से विरोध तो है ही साथ ही दैनिक वेदाध्ययन की मान्यता का भी खण्डन हो रहा है । और सूर्य की ज्योति रहने पर वेदों को न पढ़ने की बात तो वेद - पाठ में सबसे बड़ी बाधा है । दिन और रात दोनों में निषेध होने से वेदों को पढ़ा ही न जा सकेगा ? (घ) इसी प्रकार ४।९९, १०८ श्लोकों में शूद्र के पास वेद न पढ़ने की बात भी अवैदिक है । क्यों कि जब स्वयं वेदों में शूद्रों को भी वेद पढ़ने का समान अधिकार दिया है, तो उनके पास न पढ़ने की बात मिथ्या ही है । यह भावना शूद्रों को वेद न पढ़ाने की मान्यता से अनुप्राणित एवं पक्षपातपूर्ण होने से मान्य नहीं हो सकती । (ड) ४।१०९ - १११,११७,१२४ श्लोकों में मृतक श्राद्ध खाकर वेद न पढ़ने की बात भी मनु से विरूद्ध है । क्यों कि मनु ने दैनिक (जीवित पितरों का) श्राद्ध ही करने का ३।८२ में विधान किया है । (च) ४।११२ में मांस तथा सूतकान्न खाकर वेद न पढ़ने की बात मनु की नहीं है । क्यों कि मनु ने मांसभक्षण का ‘तस्मान्मांसं विवर्जयेत्’ (५।४८) सर्वथा निषेध किया है । और सूत कान्न की मान्यता भी सत्य नहीं है, इसके लिये पंच्चमाध्याय के ५८ - १०४ श्लोकों पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । (छ) और ४।११३ में दोनों सन्ध्याओं के समय तथा अमावस्यादि पर्वों पर वेद न पढ़ने की बात मनु से विरूद्ध है । क्यों कि मनु के अनुसार दोनों समय ब्रह्मयज्ञ व देवयज्ञ का विधान सन्ध्याकालों में ही किया है । और पर्वों पर विशेष यज्ञों का विधान किया है । क्या बिना वेद - मन्त्रों के ही यह याज्ञिक क्रियाकलाप सम्भव हो सकता है ? (ज) और ४।११६ में श्मशान में वेद न पढ़ने की बात भी असंगत है । क्यों कि अन्त्येष्टि संसार तो वेद - मन्त्रों से श्मशान में ही किया जाता है । अतः ये सभी श्लोक मनु की मान्यताओं से विरूद्ध एवं विषय - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
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