Manu Smriti
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न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः ।न स्पृशेच्चैतदुच्छिष्टो न च स्नायाद्विना ततः ।।4/82
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
क्रोधवश अपने व दूसरे के शिर में न मारें, केश (बालों को) न खींचें, यदि शिर में तेल लगा स्नान करें तो अन्य अंगों में तेल न लगावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।८०-९१) श्लोक निम्नलिखितकारणों से प्रक्षिप्त हैं - मनु ने सर्वत्र वर्णव्यवस्था का आधार कर्म को माना है, जन्म को नहीं । किन्तु ४।८०-८१ श्लोकों से जन्ममूलक वर्णव्यवस्था का स्पष्ट बोध हो रहा है । मनु के अनुसार शूद्र वह है कि जो बौद्धिक - कार्य करने में असमर्थ होने से शारीरिक श्रम करके आजीविका करता है । किन्तु उसके लिये धर्माचरण का प्रतिषेध नहीं है । मनु ने ‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’ (१०।१२६) और ‘अन्त्यादपि परं धर्मम्’ (२।२३८) कहकर शूद्र को भी धर्माचरण करने का पूर्ण अधिकार दिया है । और १२।५२ में स्पष्ट लिखा है कि जो धर्माचरण नहीं करता, वह मनुष्य पापाचरण - रत रहता है । मनु ने इन्द्रियों का संयम करना, अहिंसा का पालन करना, वेदाभ्यास करना, तपस्या करनादि मानवधर्म माने हैं । और चारों वर्णों के लिये जिन विवाहों का वर्णन किया है, उनमे यज्ञादि धर्म क्रियाओं का मनु ने शूद्रों के लिये भी द्विजों के समान ही विधान किया है । अतः शूद्रको धर्मोपदेश न करने की बात मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकती । और ४।८४ - ८७ तक श्लोकों में ऐसे राजा से दान लेने का निषेध किया है, जो क्षत्रिय से उत्पन्न न हुआ हो । यह मान्यता भी जन्म मूलक होने से मनु की नहीं हो सकती । जो गुण, कर्म, स्वभाव से क्षत्रिय - कर्म करने वाला होता है, वह राजा है, चाहे वह जन्म से किसी भी वर्ण का हो, उससे दान लेने में कोई हानि नहीं है । क्यों कि दान करना क्षत्रिय के धर्मों में परिगणित है । ४।८५ - ८६ श्लोकों में राजा की निरर्थक निन्दा की गई है । जो राजा धार्मिक है, धर्म से प्रजा की रक्षा करता है, और धर्मपूर्वक प्रजा से कर ग्रहण करता है, उसको मनु ने धर्म का प्रतिभू (७।१७) कहा है । क्या उस राजा को ही मनु वेश्या, भांड तथा वधिक से भी निकृष्ट कह सकता है ? अतः राजा की निन्दा यहां पक्षपातपूर्ण तथा मिथ्या ही की है । और ४।८७ - ९० श्लोकों में इक्कीस नरकों की परिगणना भी कपोल - कल्पित होने से मिथ्या ही है । क्यों कि मनु की मान्यता के अनुसार स्वर्ग - नरक कोई स्थान - विशेष नहीं हैं । अन्यथा कर्म फलगति वर्णन में स्वर्ग - नरक का अवश्य वर्णन करते । मनु ने ‘नरक’ शब्द का प्रयोग ‘स्वर्ग’ के विलोम शब्द के रूप में प्रयोग किया है । और ‘स्वर्ग’ को लौकिक सुख तथा मोक्षसुख के लिये प्रयुक्त किया है । जब मनु लिखते हैं - ‘दाराधीनस्तथा स्वर्गः’ (९।२८) तथा ‘स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्दता’ (३।७९) अर्थात् गृहस्थ का सुख स्त्री के आधीन है, तो यहां ‘स्वर्ग’ शब्द सुख विशेष का ही वाचक है, स्थान विशेष का नहीं । इसी प्रकार दुःख विशेष वाचक ‘नरक’ शब्द है । जिसकी व्याख्या निरूक्त में इस प्रकार का है - ‘नरकं न्यरकं नीचैर्गमनमिति वा ।।’ अर्थात् मनुष्य की अधोगति होना ही नरक है । मनु ने १२वें अध्याय में अपनी मान्यता स्पष्ट लिखी है कि जीव कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जाकर सुख - दुःख भोगता है । अतः नरकों की परिगणना अथवा मान्यता मनु की कदापि नहीं है । यह पौराणिक युग में ही प्रक्षेप किया गया मत है । और ये श्लोक विषय बाह्य होने से भी प्रक्षिप्त हैं । इनमें वर्णित विषय का व्रत अथवा सतोगुण वर्धन से कोई सम्बन्ध नहीं है । इन श्लोकों की वर्णनशैली भी पक्षपातपूर्ण, अतिशयोक्तिपूर्ण तथा अयुक्तियुक्त है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त - कोटि में आते हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
३६-एक साथ दोनों हाथों से अपना सिर न खुजलावे, न जूठे हाथ सिर को छुए, और न सिर को बिना धोए स्नान करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेत् आत्मनः शिरः) दोनों हाथों को जोड़कर अपना सिर न खुजलावे। (न स्पृशेत् च एतत् उच्छिष्टः) न जूठे हाथ से सिर को छुये। (न च स्नायाद् बिना ततः) स्नान करने में ही सिर से आरम्भ करें।
 
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