Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गाँव वा घर यह दोनों, चारों ओर से घिरे हुए होंवे तो द्वार छोड़ और ओर से लाँघ (फाँद) कर उसके भीतर न जावें तथा रात्रि समय वृ़क्ष की जड़ में न रहें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।६९-७८) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
ये सभी श्लोक विषयबाह्य हैं । इनमें वर्णित बातों को न तो व्रत ही कहा जा सकता और नहीं इनका सतोगुणवर्धन से कोई सम्बन्ध ही है । और इन श्लोकों में ऐसी बातों का स्पष्ट वर्णन है, जो मनुप्रोक्त बातों का स्पष्ट विरोध करती हैं । जैसे - २।४८ वें श्लोक में निकलते हुए सूर्य - दर्शन का विधान है, किन्तु यहां ४।६९ में बाल सूर्य की धूप का निषेध किया है । ४।३५ वें श्लेाक में नाखूनादि को काटने का विधान लिखा है, किन्तु ४।६९ में नाखून काटने का ही निषेध किया गया है । इसी प्रकार पुतरूक्त बातें भी कम नहीं हैं, जैसे - ४।७५ में ‘न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्’ यह पहले कही गई २।५६ श्लोक के चरण की पुनरावृत्ति मात्र ही है । और इनमें ऐसी अयुक्तियुक्त तथा अमौलिक बातों की भरमार है जो मनु की नहीं हो सकतीं । जैसे ४।७० में मिट्टी के ढेले को हाथ से न मसलना, अंगुलियों से तिनका न तोड़ना ४।७१ में मिट्टी के ढेले को हाथ से तोड़ने वाला तथा तिनकों को तोड़ने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है । और ४।७२ में बाहर माला - धारण करने का निषेध करना, ४।७६ में गीले पैर करके भोजन करने से दीर्घायु का होना और ४।७८ में बाल, राख, मुसादि पर न बैठने से आयु का बढ़ा जानादि । ऐसी अतिशयोक्तिपूर्ण बातें मौलिक न होने से मनु की कदापि नहीं हो सकती ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
३१-दीवार आदि से घिरे हुए ग्राम या घर में द्वार को छोड़कर दूसरे रास्ते से अन्दर न जावे। और, रात्रि के समय वृक्षों के नीचे बैठना या ठहरना सर्वथैव वर्जित है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अद्वारेण च न अतीयात्) द्वार को छोड़कर अन्य किसी रीति से अर्थात् कूद फाँदकर न जावें, (ग्रामं वैश्म वा आवृतं) ऐसे गांव या घर में जिसके चारों ओर परकोटा खिंचा हो। रात के समय वृक्ष की जड़ों को दूर से ही त्याग दें।