Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन्नपि न स्थितः ।न नदीतीरं आसाद्य न च पर्वतमस्तके ।।4/47
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
खड़े होकर, चलते हुये, उस गढ़े में जिसमें जीव रहते हों, नदी तट तथा पर्वत की चोटी पर भी मलमूत्र न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।४३-६६) श्लोक निम्नलिखित - कारणों से प्रक्षिप्त हैं - इन श्लोकों में वर्णित बातें विषय से बाह्य होने से असंगत हैं । प्रस्तुत सतोगुण वर्धन से इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं है । जैसे स्त्री - पुरूष का जीवन भर का सम्बन्ध है किन्तु पति स्त्री के साथ भोजन न करे, स्त्री को खाते हुए भी न देखे, छींकती हुई, जम्भाई लेती हुई तथा सुख पूर्वक बैठी हुई स्त्री को न देखे, इस प्रकार की बातें अव्यवहारिक ही हैं । इकठे रहते हुए स्त्री - पुरूष इनका पालन कैसे कर सकते हैं ? और ४।४८ में वायु, अग्नि, सूर्य, जल को देखते हुए, मल - मूत्र का त्याग न करे, यह भी असम्भव ही है । वायु तथा सूर्य का परित्याग कैसे सम्भव है ? और जल के बिना मल - मूत्र का विसर्जन कैसे कर सकेगा ? और जिस ओर का वायु चलता हो, उस ओर मुंह करके मल - त्याग करना तो ठीक है, क्यों कि इससे दुर्गन्ध से बचा जा सकता है । किन्तु वायु चाहे किधर का भी हो, दिन में उत्तर मुख होकर और रातमें दक्षिणमुख होकर (४।५०) मल - त्याग की बात कल्पना पर ही आश्रित है । और ४।५२ में अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, हवादि की ओर मुख करके मल - मूत्र करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । यदि ऐसा हो तो सभी बुद्धिहीन होजाने चाहियें, क्यों कि ऐसी जगह कौन - सी होगी, जहाँ हवा, सूर्य, अग्नि आदि न होंगे । और ४।६१ में शूद्र के राज्य में निवास का निषेध मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? मनु ने सब व्यवस्थाओं का आधार कर्म को माना है, जन्म को नहीं । जो राजा के कार्य करता है, वह शूद्र कैसे हो सकता है ? और जो कर्मानुसार शूद्र है, वह राजा कैसे बनेगा ? इसी प्रकार ४।६२ में अंज्जलि से जल पीने का निषेध करना, ४।६४ में नाचने, गाने, बजाने का निषेध करना, इत्यादि इस प्रकार की बातें हैं, जिनका धर्म - अधर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी बातों के पिटारे को ही क्या धर्म - शास्त्र कहा जा सकता है ? इस प्रकार की अमौलिक तथा अव्यवहारिक बातें मनु की कदापि नहीं हो सकतीं । अतः मनु की शैली से विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, न प्राणियों के बिलों में, न चलते चलते, न खड़े खड़े, न नदी के तट पर, और न पर्वत की चोटी पर कभी मल-मूत्र का त्याग करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
न उन बिलों में जिनमें जीव रहते हैं, न चलते हुए, न खड़े होकर, न नदी के किनारे बैठकर और न पर्वत की चोटी पर से।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS