Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जुते खेत, जल, अग्नि, चिता, पर्वत देवताओं के जीर्ण (पुराने) मन्दिर, वल्मीक (छोटे 2 कीड़ों द्वारा एकत्रित की हुई मिट्टी) इन सब पर भी कदापि मलमूत्र त्याग न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।४३-६६) श्लोक निम्नलिखित - कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इन श्लोकों में वर्णित बातें विषय से बाह्य होने से असंगत हैं । प्रस्तुत सतोगुण वर्धन से इन बातों का कोई सम्बन्ध नहीं है । जैसे स्त्री - पुरूष का जीवन भर का सम्बन्ध है किन्तु पति स्त्री के साथ भोजन न करे, स्त्री को खाते हुए भी न देखे, छींकती हुई, जम्भाई लेती हुई तथा सुख पूर्वक बैठी हुई स्त्री को न देखे, इस प्रकार की बातें अव्यवहारिक ही हैं । इकठे रहते हुए स्त्री - पुरूष इनका पालन कैसे कर सकते हैं ? और ४।४८ में वायु, अग्नि, सूर्य, जल को देखते हुए, मल - मूत्र का त्याग न करे, यह भी असम्भव ही है । वायु तथा सूर्य का परित्याग कैसे सम्भव है ? और जल के बिना मल - मूत्र का विसर्जन कैसे कर सकेगा ? और जिस ओर का वायु चलता हो, उस ओर मुंह करके मल - त्याग करना तो ठीक है, क्यों कि इससे दुर्गन्ध से बचा जा सकता है । किन्तु वायु चाहे किधर का भी हो, दिन में उत्तर मुख होकर और रातमें दक्षिणमुख होकर (४।५०) मल - त्याग की बात कल्पना पर ही आश्रित है । और ४।५२ में अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, हवादि की ओर मुख करके मल - मूत्र करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । यदि ऐसा हो तो सभी बुद्धिहीन होजाने चाहियें, क्यों कि ऐसी जगह कौन - सी होगी, जहाँ हवा, सूर्य, अग्नि आदि न होंगे । और ४।६१ में शूद्र के राज्य में निवास का निषेध मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? मनु ने सब व्यवस्थाओं का आधार कर्म को माना है, जन्म को नहीं । जो राजा के कार्य करता है, वह शूद्र कैसे हो सकता है ? और जो कर्मानुसार शूद्र है, वह राजा कैसे बनेगा ? इसी प्रकार ४।६२ में अंज्जलि से जल पीने का निषेध करना, ४।६४ में नाचने, गाने, बजाने का निषेध करना, इत्यादि इस प्रकार की बातें हैं, जिनका धर्म - अधर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी बातों के पिटारे को ही क्या धर्म - शास्त्र कहा जा सकता है ? इस प्रकार की अमौलिक तथा अव्यवहारिक बातें मनु की कदापि नहीं हो सकतीं । अतः मनु की शैली से विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, गृहस्थ न जोते हुए खेत में, न पानी में, न ईंट के भट्टे पर, न पर्वत पर, न टूटे फूटे भी विद्वत्-निवास या यज्ञशाला में, और न बामी पर कभी मल-मूत्र का त्याग करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न फालकृष्टे) न जुते खेत में, (न जले) न जल में, (न चित्यां) न हवन के लिये चिने हुए कुण्ड में, (न च पर्वते) न पर्वत में, (न जीर्ण देवायतने) न पुराने देवालय में, (न वल्मीके) न चींटी के बिल में (कदाचन) कभी।