Manu Smriti
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मृदं गां दैवतं विप्रं घृतं मधु चतुष्पथम् ।प्रदक्षिणानि कुर्वीत प्रज्ञातांश्च वनस्पतीन् ।।4/39
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कहीं जाता हो और सम्मुख मिट्टी, गऊ, देवता, ब्राह्मण, घृत, मधु (शहद) चौराहा, प्रज्ञाता (जानी हुई) वनस्पति मिले तो उनकी प्रदक्षिणा करके जायें अथवा उनको दाहिनी ओर करके जावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।३६-३९) चार श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - इस सतोगुणवर्धक व्रत - प्रकरण से इन चार श्लोकों का कोई सम्बन्ध न होने से ये अप्रासंगिक श्लोक हैं । इनमें वर्णित विषय को व्रत भी नहीं कह सकते । बाँस की लाठी धारण करना, जलपात्र रखना, सोने के कुण्डल धारण करनादि मनुसम्मत व्रत नहीं है । यथार्थ में किसी प्रक्षेपक ने यहाँ कल्पितबातों का समावेश किया है । अन्यथा मनु ऐसी बुद्धि हीनता की बातों को कैसे कह सकता था कि सूर्य को उदय होते हुए, छिपते हुए तथा मध्य आकाश में न देखे । जब कि इससे पूर्व २।४८ तथा २।१०१ श्लोकों में सूर्य को देखने का विधान किया है । और ४।३९ में मिट्टी, गाय, ब्राह्मण, देवमूत्र्ति, घी, मधु, चैराहा तथा पीपलादि वृक्षों की प्रदक्षिणा करने का विधान करके तो प्रक्षेपक का रहस्य ही प्रत्यक्ष हो गया है । क्यों कि ये सभी बातें पौराणिक युग से सम्बद्ध होने से अर्वाचीन हैं । मनु ने अपने समस्त शास्त्र में कहीं जड़ - पूजा का तथा ऐसी प्रदक्षिणाओं का विधान नहीं किया है । ऐसी अयुक्ति युक्त, बुद्धि विरूद्ध तथा अव्यवहारिक बातें धर्मशास्त्र से सम्बद्ध भी नहीं हो सकती, जिनके परिणाम में किसी भी प्रकार कारण - कार्यभाव न हो । और जो निर्धन है, क्या वह सोने के कुण्डल आदि न होने पर धर्माचरण कर ही न सके ? धर्मशास्त्र में इस प्रकार को गरीब - अमीर की दिवारें खड़ी करना अर्वाचीन ढोंगी व्यक्तियों के कार्य हैं, मनु के नहीं ।
 
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