Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्याह्न तथा ग्रहण समय सूर्य का प्रतिबिम्ब जल में न देखें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।३६-३९) चार श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इस सतोगुणवर्धक व्रत - प्रकरण से इन चार श्लोकों का कोई सम्बन्ध न होने से ये अप्रासंगिक श्लोक हैं । इनमें वर्णित विषय को व्रत भी नहीं कह सकते । बाँस की लाठी धारण करना, जलपात्र रखना, सोने के कुण्डल धारण करनादि मनुसम्मत व्रत नहीं है । यथार्थ में किसी प्रक्षेपक ने यहाँ कल्पितबातों का समावेश किया है । अन्यथा मनु ऐसी बुद्धि हीनता की बातों को कैसे कह सकता था कि सूर्य को उदय होते हुए, छिपते हुए तथा मध्य आकाश में न देखे । जब कि इससे पूर्व २।४८ तथा २।१०१ श्लोकों में सूर्य को देखने का विधान किया है । और ४।३९ में मिट्टी, गाय, ब्राह्मण, देवमूत्र्ति, घी, मधु, चैराहा तथा पीपलादि वृक्षों की प्रदक्षिणा करने का विधान करके तो प्रक्षेपक का रहस्य ही प्रत्यक्ष हो गया है । क्यों कि ये सभी बातें पौराणिक युग से सम्बद्ध होने से अर्वाचीन हैं । मनु ने अपने समस्त शास्त्र में कहीं जड़ - पूजा का तथा ऐसी प्रदक्षिणाओं का विधान नहीं किया है । ऐसी अयुक्ति युक्त, बुद्धि विरूद्ध तथा अव्यवहारिक बातें धर्मशास्त्र से सम्बद्ध भी नहीं हो सकती, जिनके परिणाम में किसी भी प्रकार कारण - कार्यभाव न हो । और जो निर्धन है, क्या वह सोने के कुण्डल आदि न होने पर धर्माचरण कर ही न सके ? धर्मशास्त्र में इस प्रकार को गरीब - अमीर की दिवारें खड़ी करना अर्वाचीन ढोंगी व्यक्तियों के कार्य हैं, मनु के नहीं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न ईक्षेत) न देखें (उद्यन्तं आदित्यं) निकलते हुये सूय्र्य को (न अस्तं यान्तं कदाचन) न कभी अस्त होते हुए सूय्र्य को (न उपसृष्टं) न ग्रहों से मिले हुये सूय्र्य को जैसे सूय्र्यग्रहण आदि के समय (न वारिस्थ) न जल में छाया पड़ते हुये को। (न मध्यं नभसः गतं) न दोपहर के समय बीच आकाश में गये हुये सूय्र्य को।