Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि स्नातक गृहस्थ क्षुधा से अतीव पीड़ित हो वो राजा, यजमान, विद्यार्थी इन सब से धन लेवें अन्य से न लेवें यह शास्त्रमर्यादा है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।३३-३४) दोनो श्लोक निम्न - कारण से प्रक्षिप्त हैं -
इस अध्याय के विषय का निर्देश ४।१३ में किया है कि स्नातक इन व्रतों को धारण करे । और इस प्रकरण की समाप्ति पर ४।२५९ श्लोक द्वारा निर्देश दिया है - स्नातकव्रतकल्पश्च सत्त्वृद्धिकरः शुभः ।। अर्थात् वे व्रत सत्त्व को बढ़ाने वाले हों । सत्त्व का लक्षण मनु के अनुसार यह है - सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः ।। (१२।३८) अर्थात् धर्म को ही सत्त्व का लक्षण माना है । और सत्त्व का लक्षण करते हुए एक अन्य स्थान पर लिखा है -
वेदाभ्यासः तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम् ।। (१२।३१)
अर्थात् वेदाभ्यास करना, तप, ज्ञान, शौच - शुद्धि, इन्द्रियसंयम, धर्माचरण और आत्मा - परमात्मा का चिन्तन करना, ये सतोगुण के लक्षण हैं । क्यों कि इन दोनों श्लोकों की विषयवस्तु प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध नहीं है, अतः ये प्रक्षिप्त हैं ।
और इन श्लोकों में आपत्कालीनधर्मो का वर्णन किया है । मनु ने आपत्कालीन विधानों का वर्णन दशमाध्याय में किया है । फिर यहाँ आपद्धर्म कथन की कोई आवश्यकता कैसे हो सकती है ? और ये श्लोक पूर्वापरप्रसंग के भी विरूद्ध हैं । इनसे पूर्व अतिथियज्ञ, तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ का वर्णन किया गया है । और इनसे आगे भी ४।३५ में ब्रह्मयज्ञ का वर्णन है । यज्ञों के इस प्रकरण में भूख से पीड़ित स्नातक के कत्र्तव्यों का वर्णन अप्रासंगिक ही है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(राजतः धनं अनु + इच्छेत्) राजा से धन माँग ले (संसीदन स्नातकः क्षुधा) भूख से पीड़ित हुआ स्नातक। (याज्य + अन्तेवासिनः वा अपि) या यजमान तथा शिष्य से (न तु अन्यतः) और किसी से नहीं। (इति स्थितिः) ऐसी स्थिति है। अर्थात् स्नातक भूखा हो तो पहले राजा से माँगे। या यजमान् से जिसके घर यज्ञ कराया हो, या शिष्य से जिसको पढ़ाया हो।