Manu Smriti
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वाच्येके जुह्वति प्राणं प्राणे वाचं च सर्वदा ।वाचि प्राणे च पश्यन्तो यज्ञनिर्वृत्तिं अक्षयाम् ।।4/23
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य वाणी से उपदेश कर, तथा प्राण से परोपकार में परिश्रम कर इस अक्षय यज्ञ को सिद्ध करना चाहते हैं वह वाणी को प्राणी में हवन करते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये श्लोक प्रसंग विरूद्ध हैं । ४।२१ श्लोक में कहा है कि गृहस्थियों को पंच्चमहायज्ञ अवश्य करने चाहिये । और ४।२५ में अग्निहोत्रादि के करने का समय बताया है । किन्तु इन श्लोकों में यज्ञों के विकल्प दिये गये हैं, जिन विकल्पों के साथ मनुविहित पंच्चमहायज्ञों की कोई संगति नहीं है । यदि इन विकल्पों को स्वीकार किया जाये तो पंच्चमहायज्ञों की अनिवार्य व्यवस्था गलत सिद्ध हो जायेगी ।
 
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