Manu Smriti
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एतानेके महायज्ञान्यज्ञशास्त्रविदो जनाः ।अनीहमानाः सततं इन्द्रियेष्वेव जुह्वति ।।4/22
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य यज्ञ शास्त्र के ज्ञाता हैं पर उन यज्ञों के करने की इच्छा नहीं करते वे सर्वदा इन्द्रियों में हवन करते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये श्लोक प्रसंग विरूद्ध हैं । ४।२१ श्लोक में कहा है कि गृहस्थियों को पंच्चमहायज्ञ अवश्य करने चाहिये । और ४।२५ में अग्निहोत्रादि के करने का समय बताया है । किन्तु इन श्लोकों में यज्ञों के विकल्प दिये गये हैं, जिन विकल्पों के साथ मनुविहित पंच्चमहायज्ञों की कोई संगति नहीं है । यदि इन विकल्पों को स्वीकार किया जाये तो पंच्चमहायज्ञों की अनिवार्य व्यवस्था गलत सिद्ध हो जायेगी ।
 
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