Manu Smriti
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वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च ।वेषवाग्बुद्धिसारूप्यं आचरन्विचरेदिह ।।4/18
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आयु, कर्म, धन, सुनी हुई बात, तीक्ष्ण भाषण तथा बुद्धि इन सब के अनुसार आचरणों से संसार में जीवन व्यतीत करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह श्लोक प्रसंगविरूद्ध है । ४।१७ श्लोक में स्वाध्याय के विषय में कहा गया है कि स्वाध्याय के विरोधी अर्थ का परित्याग कर देना चाहिये । और ४।१९ श्लोक में भी नित्य स्वाध्याय पर बल दिया गया है । इनके बीच में इस श्लोक में क्रम - भंग तथा विषय - विरूद्ध वर्णन है । और ‘सतोगुण - वर्धक व्रतों के प्रकरण से भी इस श्लोक का कोई सम्बन्ध नहीं है । इस श्लोक में आयु, कर्म, धन, वेद तथा अपने कुल के अनुरूप वेषादि धारण की बात भी मनु की नहीं हो सकती । मनु ने कुल - परम्परा के वेष न मानकर वर्णानुसार ब्रह्मचारियों के वेषों का तो वर्णन किया है । और यहाँ सतोगुणवर्धन से वेषादि का क्या सम्पर्क है ? मनु लिंग को धर्म का कारण नहीं मानते । और वे कर्म - प्रधान वर्णव्यवस्था के पक्षपाती हैं, किन्तु यहाँ कुल परम्परा के वेषादि से जन्म - मूलक व्यवस्था का स्पष्ट संकेत मिलता है, अतः यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध तथा अलौकिक होने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(वयसः) आयु, (कर्मणः) चाल चलन (अर्थस्य) धन (श्रुतस्य) विद्या (अभिजानस्य च) और कुल के अनुसार (वेष वाक् बुद्धि सारूप्यं) वस्त्र आदि, बातचीत और बुद्धि की अनुकूलता को (आचरेत्) करता हुआ (विचरेत् इह) इस संसार में विचरें। अर्थात् अपनी परिस्थिति को देख उसी के अनुकूल वस्त्र पहनना चाहिये, बात करनी चाहिये तथा अन्य व्यवहार करना चाहिये।
 
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