Manu Smriti
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षट्कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्यः प्रवर्तते ।द्वाभ्यां एकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्त्रेण जीवति ।।4/9
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन चारों में 1-प्रथम पटकर्म द्वारा जीवन निर्वाह करें, 2-द्वितीय तीन कर्म द्वारा, 3-तृतीय दो कर्म द्वारा, 4-चतुर्थ एक कर्म से शरीर रक्षा करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
इन श्लोकों में जिन आजीविकाओं का वर्णन किया गया है, उनका मनु की मौलिक मान्यताओं से स्पष्ट विरोध है । मनु ने १।८७-९१ श्लोकों में चारों वर्णों के जिन कर्मों का परिगणन किया है, उनमें कुछ कर्म तो वर्णों की आजीविकायें ही हैं । किन्तु यहां सभी द्विजों के लिये उनसे भिन्न आजीविकाओं का वर्णन किया गया है और सब के लिये एक सी व्यवस्था देना मनुसम्मत कैसे हो सकती है ? मनु का अभिप्राय यहां आजीविकाओं का परिगणन कराना नहीं, प्रत्युत ‘स्वैः कर्मभिरगर्हितैः’ (४।३) अपने - अपने वर्णानुसार कर्म करते हुए ऐसी आजीविका का प्रतिरोध करना है कि जिससे दूसरे प्राणियों की हिंसा होती हो, छल कपट का आश्रय करना पड़ता हो अथवा अत्यधिक शारीरिक श्रम करना पड़े । इसका मनु ने ४।२-३ तथा ४।११-१२ में स्पष्ट निर्देश किया है । यहाँ ४।३ श्लोक की ४।११ श्लोक से पूर्ण संगति भी है । इनके मध्य में जो वर्णन मिलता है वह प्रसंग - विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता । इन श्लोकों में ‘सेवा’ भी एक आजीविका है । मनु ने ‘सेवा करना’ शूद्र का कत्र्तव्य माना है, द्विजातियों का नहीं । ‘सेवा’ को श्ववृत्ति कहकर परित्याज्य कहना असंगत है, क्योंकि द्विजों कासेवा करना कर्म ही नहीं है । इसी प्रकार मनु का निर्देश तो ऐसी आजीविका से है जो छलकपटादि व्यवहार से शून्य हो, किन्तु यहाँ ‘सत्यानृतं तु वाणिज्यम्’ (४।६) सत्यासत्य को वाणिज्य माना है और वाणिज्य - कर्म वैश्य का है, यहाँ उसे द्विजमात्र का माना है । और इसी प्रकार ४।४-५ श्लोकों में लिखा है - मृत - भिक्षा मांग कर तथा प्रमृत - खेती करके द्विज आजीविका करे । मनु ने गृहस्थी को भिक्षा मांगने का कहीं निर्देश नहीं किया है, प्रत्युत ३।१०४ श्लोक में उस गृहस्थी की घोर निन्दा की है, जो दूसरे के अन्न खाने की नियत रखता है । और मनु ने कृषि करना वैश्य का कर्म माना है । किन्तु कृषि करने को यहाँ भिक्षा मांगने से भी निकृष्ट बताना क्या मनु के विरूद्ध नहीं है ? अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा मनु की मौलिक मान्यताओं से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(षट्कर्मा एकः भवति एषां) इनमें एक छः कर्म करके जीविका करता है, (त्रिभिः अन्यः प्रवर्तते) दूसरा तीन काम करके। (द्वाभ्यां एकः) तीसरा दो काम करके। (चतुर्थः तु ब्रह्मसत्रेण जीवति) और चौथा ब्रह्मसत्र से। अर्थात् केवल यज्ञ करके निर्वाह करता है। इनमें चौथा सब से अधिक निर्धन अतः सब से श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें धर्म के लिये त्याग की मात्रा अधिक है।
 
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