Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मनुष्यों के एक मास के तुल्य पितरों का एक-रात्रि दिवस होता है। इसमें कृष्णपक्ष काय्र्य करने के हेतु दिन है और शुक्लपक्ष सोने के हेतु रात्रि है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।६६ वाँ श्लोक निम्न - कारणों से प्रक्षिप्त है - यह श्लोक पूर्वापर - प्रसंग से विरूद्ध है । दिन - रात - सृष्टि - प्रलय के परिमाण के वर्णन में पितरों के मास, रात - दिनादि की कोई संगति नहीं है । ज्योतिषादि शास्त्रों में भी दो प्रकार से काल - गणना की गई है - देववर्ष तथा मानव वर्ष । मनु को भी वे ही अभिप्रेत हैं । पितरों की काल - गणना के वर्ष मनु ने दिखाये भी नहीं हैं । अन्यथा दिन - रात - मास दिखाकर पितरों के वर्षों की गणना भी वैसे ही करते, जैसे देव - मानववर्ष गिनाये हैं । और १।६५ श्लोक की १।६७ से पूर्णत् संगति है, बीच में इस विषय का केवल एक ही श्लोक है, जिससे किसी भी प्रकार की संगति नहीं है, अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है । और यह पितरों की एक योनि - विशेष मानने वालों की भावना से अनुप्राणित है । और यह व्यवहारिक भी नहीं है । पितरों के रात - दिन १५-१५ मानव दिन के होते हैं , और इस श्लोक में कहा है कि कृष्ण दिन काम करने के लिये, और शुक्ल दिन सोने के लिये हैं । इसका आशय लोकव्यवहार से विपरीत है । रात सोने तथा दिन काम करने के लिये प्रसिद्ध है, पितरों के रात - दिन विपरीत ही हैं । और इन पितरों के रात - दिन को दिखाने की कोई संगति भी नहीं है ।