Manu Smriti
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यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः ।अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ।।4/3

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
शुभकर्मों तथा शरीर को क्लेश न पहुँचाने वाली विधि द्वारा अपने शरीर पोषण मात्र (उदर क्षुधा निवृत्त्यर्थ) धन संचय करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अपने अनिन्दित अर्थात् श्रेष्ठकर्मों से शरीर को अधिक कष्ट न देकर केवल जीवन यात्रा को चलाने के लिए ही (अर्थात् जिससे जीवन कष्टरहित रूप में चलता रहे और उससे अधिक ऐश्वर्य भोग की कामना न हो) धन का संचय करे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
३-गृहस्थ अपने-अपने अनिन्दित कर्मों द्वारा, शरीर को हानि न पहुंचा कर, केवल प्राणरक्षा के निमित्त धन-संचय करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यात्रा-मात्र-प्रसिद्धि-अर्थ) केवल जीवन-यात्रा पूरी करने के लिये अर्थात् जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये (स्वैः कर्मभिः अगर्हितैः) अपने निन्दारहित अर्थात् शुभ कार्यों द्वारा (अक्लेशेन शरीरस्य) शरीर को बिना पीड़ा पहुँचाये (कुर्वीत्) करे (धनसंचयम्) धन का संचय। अर्थात् धन कमाने में इतनी बातों का विचार रक्खें:- (1) केवल जीवन-निर्वाह के लिये, न कि इकट्ठा करने के लिये। (2) निन्दित कर्म न हों। (3) शरीर को क्लेश न हो।
 
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