Manu Smriti
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अद्रोहेणैव भूतानां अल्पद्रोहेण वा पुनः ।या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि ।।4/2

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण को अपनी वृत्ति ऐसी रखनी उचित है जिससे जीवों को कष्ट न हो। यदि यह असाध्य हो तो जिस कारण से अल्प कष्ट हो ऐसी विधि से कार्य करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
द्विज व्यक्ति आपत्तिरहितकाल में प्राणियों को जिससे किसी प्रकार की पीड़ा न पहुंचे अथवा ऐसी वृत्ति न मिलने पर बाद में जिसमें प्राणियों को कम से कम पीड़ा हो ऐसी जो वृत्ति -आजीविका हो उसको अपनाकर जीवननिर्वाह करे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
२-द्विज निरापद काल में प्राणियों को बिना कष्ट पहुंचाए वा स्वल्प कष्ट देकर जो वर्ताव हो सकता हो, उसे धारण करके जीवन व्यतीत करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अद्रोहेण एव भूतानाम्) प्राणियों को बिना पीड़ा पहुँचाये (अल्पद्रोहेण वा पुनः) या बहुत कम पीड़ा पहुँचाते हुए (या वृत्तिः) जो जीविका है (तां सम् + आस्थाय) उसको करके (विप्रः) ज्ञानी पुरुष (जीवेत्) जिये (अनापदि) आपत्ति रहित समय में। अर्थात् गृहस्थ को ऐसी जीविका धारण करनी चाहिये, जिससे किसी प्राणी को दुःख न हो, या कम से कम दुःख हो। जैसे यदि कोई गाड़ी जोतता है तो बैलों को सुख दे। कसाई आदि का पेशा कभी न करे। आपत्काल का धर्म अलग है।
 
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