Manu Smriti
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अनेन विधिना श्राद्धं त्रिरब्दस्येह निर्वपेत् ।हेमन्तग्रीष्मवर्षासु पाञ्चयज्ञिकं अन्वहम् 3/281
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस विधि से प्रत्येक वर्ष हेमन्त (जाड़ा), ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा (बरसात) तीनों ऋतुओं में श्राद्ध करें तथा पंचमहायज्ञ तो नित्य ही करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (३।११९-२८४) १६६ श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ३।११७-११८ में गृहस्थी पति - पत्नियों के लिये ‘यज्ञशेषभुक्’ कहा है । और ३।२८५ में यज्ञशेष को ही अमृत - भोजन कहा है । अतः इन श्लोकों की पूर्णतः परस्पर संगति है । इनके मध्य में ये १६६ श्लोक प्रसंग को भंग कर रहे हैं । (ख) और यहाँ पंच्चमहायज्ञों का विधान क्रमशः किया गया है अर्थात् ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथि यज्ञ । इनमें पितृयज्ञ का वर्णन ३।८३ में समाप्त हो गया । ३।९४ में वैश्वदेवयज्ञ का विधान पूर्ण हो गया । तत्पश्चात् अतिथियज्ञ का विधान करके गृहस्थी को यज्ञशेष खाने को कहा गया है । इस अतिथियज्ञ के बाद ३।११८ से ३।२८५ के बीच के श्लोक बिना किसी क्रम के प्रकरणविरूद्ध मिलाये गये हैं । इन पंच्चयज्ञों में (३।११९) राजा, स्नातक आदि का सत्कार ३।१२१ में वैश्वदेवयज्ञ का पुनः विधान, ३।१२२ से २८४ तक ‘पितृयज्ञं तु निर्वत्र्य’ पितृयज्ञ करके मृतकश्राद्ध का विधान करना बिनाक्रम के अप्रासंगिक है । क्यों कि ३।२८६ में ‘सर्व विधानं पांच्चयज्ञिकम्’ कहकर मनु ने प्रकरण का स्पष्ट निर्देश किया है । इस प्रकरण में ‘मृतकश्राद्ध’ का किसमें अन्तर्भाव माना जाये ? पितृयज्ञ में अन्तर्भाव माना जाये तो उसका खण्डन ३।१२२ में प्रक्षेपक ने स्वंय कर दिया कि पितृयज्ञ को करके श्राद्ध करे । अतः प्रक्षेपक के कथनानुसार भी मृतकश्राद्ध पितृयज्ञ से भिन्न है । अतः मृतकश्राद्ध का प्रक्षेप सर्वथा ही असंगत है । (ग) मनु ने ३।६७ में ‘वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत....................पंच्चयज्ञ विधानम्’ लिखकर तथा ३।८२ में पितृयज्ञ को दैनिक कर्तव्य बताया है । किन्तु मृतक श्राद्ध को मासिक, त्रैमासिक माना गया है । अतः मनु के विषय - निर्देश से मृतकश्राद्ध - बाह्य होने से प्रक्षिप्त है । (घ) मृतक - श्राद्ध की मान्यता मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने जीवित पता - मातादि की तन, मन, धन से सेवा करने का तो निर्देश सर्वत्र किया है, मृतकों का नहीं । मनु ने ३।८०-८२ श्लोकों में जीवित - पितरों की पूजा तथा ‘प्रीतिमावहन्’ कहकर उनकी प्रसन्नता के लिये पितृयज्ञ लिखा है । किन्तु जो पितर मर गये हैं, उनकी तृप्ति तथा प्रसन्नता कथमपि सम्भव नहीं है । ‘पितर’ शब्द के अर्थ से भी स्पष्ट है - जो पालन तथा रक्षण करे वह ‘पितर’ कहाता है । मृतक - जीव इन दोनों अर्थों की कदापि पूर्ति नहीं कर सकते । और २।१२६ वें श्लोक से स्पष्ट है कि आंगिरस ने जो पितरों को पढ़ाया था, वे जीवित ही थे । और ९।२८ में पत्नी के आधीन पितरों का सुख भी जीवितों में ही संगत होता है । और दैनिक पितृयज्ञ का घर पर ही विधान किया है, किन्तु ३।२०७ आदि में मृतकश्राद्ध का विधान वनों, नदीतीरों तथा एकान्त में किया है । यह भिन्नता भी मनुसम्मत नहीं हो सकती । और मनु ने २।८२ में पितृयज्ञ को ही श्राद्ध माना है, किन्तु ३।१२२ में मृतकश्राद्ध को पितृयज्ञ से भिन्न माना है । मनु ने पितृयज्ञ के लिये अन्न, जल, कन्दमूल, फलादि ही आवश्यक माने हैं, किन्तु मृतकश्राद्ध में मांस से श्राद्ध करना अधिक फलदायक तथा उत्कृष्ट माना गया है । और (३।२६६ से २७२ तक) मृतकश्राद्ध में मांसभक्षण का वर्णन है, जब कि मनु ने (५।४३-५१) मांसभक्षण को पाप माना है और मांस बिना हिंसा के प्राप्त नहीं हो सकता । जिस मनु ने (३।६८-६९) श्लोकों में सूना - हिंसाजन्य दोषों की निवृत्ति के लिये और जो कि चक्की, चूल्हादि के द्वारा अनजाने में होने वाले हैं । पंच्चमहायज्ञों का विधान किया है, क्या वह इस प्रकार के मांसभक्षण का विधान कर सकता है ? और मनु ने शुभाशुभ कर्म करने वाले को ही कर्मफल का भोक्ता मानते हैं, परन्तु मृतकश्राद्ध में (३।२२०-२२२) एक के श्राद्ध करने से सात सात पीढ़ी के पूर्वजों को पुण्यफल की प्राप्ति की बात मनु सम्मत कैसे हो सकती है ? और मनु तो (१।८८, २।१४३ में) कर्मणा वर्ण व्यवस्था कोमानते हैं, किन्तु इस मृतकश्राद्ध में (३।१३६ - १३७,१५२ - १५६,१६४,१६६,१८२) जन्मना वर्णों को मानने के स्पष्ट संकेत हैं । और मनु ने वेदाध्ययन को (२।८० - ८१) दैनिक कर्तव्य तथा उसमें अवकाश का निषेध किया है किन्तु ‘न च छन्दास्यधीयीत’ (३।१८८ में) मृतकश्राद्ध में वेद - पाठ का निषेध किया है । और मनु ने सृष्टि - उत्पत्ति (१।६,१४ - २० में) परमात्मा द्वारा पंच्चभूतों से मानी है । जब कि यहाँ (३।२०१ में) ऋषियों से चराचर जगत् की उत्पत्ति मानी है । मनु ने १।९१ में शूद्रों का कर्म सेवा करना माना है, किन्तु श्राद्ध में शूद्र का स्पर्श भी निन्दनीय (३।२४१) माना है । ३।१९७ में वसिष्ठ के पुत्र सुकाली शूद्रों के पितर लिखे हैं, तो शूद्रों के घर श्राद्ध खाने कौन ब्राह्मण जायेंगे ? और वसिष्ठ ऋषि के पुत्र शूद्रों के पितर हैं, तो जन्मना वर्ण मानने वाले उन्हें शूद्र कैसे कह सकते हैं ? इस प्रकार की मनु की मान्यताओं का मृतकश्राद्ध के श्लोकों में विरोध भरा हुआ है, क्या इन विरूद्ध बातों को कोई बुद्धिमान् व्यक्ति मनु की मान सकता है ? (ड) इन मृतकश्राद्ध के श्लोकों में अत्यधिक परस्पर विरोधी बातें भी भरी पड़ी हैं, जिनसे स्पष्ट है कि इनको बनाने वाला कोई एक पुरूष न होकर भिन्न - भिन्न समय के भिन्न - भिन्न पुरूष हैं । ३।१४७ श्लोक में हव्य - कव्य देने में प्रथम कल्प और अनुकल्प का वर्णन भी भिन्न लेखकों को स्पष्ट करता है । बाद में जिसने श्लोक मिलाये, उसने अनुकल्प कहकर मिश्रण किया और इसी लिए इनमें प्रथम श्लोकों से स्पष्ट विरोध है । परस्पर विरोधी कुछ उदाहरण देखिये - १. ३।१३६ - १३७ में वेदज्ञानरहित को भी श्राद्ध में जिमाने के योग्य लिखा है, किन्तु ३।१४२ - १४६ तथा ३।१२८ - १३१ श्लोकों में वेद से अनभिज्ञ ब्राह्मण को श्राद्ध में अयोग्य माना है । २. ३।१२९ में वेदानभिा को दैवकर्म में जिमाने का निषेध किया है । और ३।१४९ में दैवकर्म में ही ब्राह्मण की विद्वत्तादि को जांच करने का निषेध किया है । ३. मृतकश्राद्ध में (३।२६६ - २७२,३।१२३) मांसभक्षण का विधान किया है और (३।१५२ में) मांस बेचने वाले ब्राह्मण को जिमाने का भी निषेध किया है । और ३।२३३ - २३७ तक श्लोकों में अन्न से पितरों की तृप्ति, ३।१२४ में अन्न से श्राद्ध और ३।१२३ में मांस से ही श्राद्ध करना लिखा है । ४. ३।१९६ - १९७ में चारों वर्णों के पितरों का उल्लेख किया है । उन में शूद्रों के सुकाली नामक पितर माने हैं और ३।२४१ में कहा है कि शूद्र के स्पर्श से भी श्राद्ध का अन्न निष्फल हो जाता है । क्या शूद्र अपने पितरों को बिना छुए ही तृप्त कर सकता है ? ५. ३।१८८ में मृतकश्राद्ध में वेदपाठ करने का निषेध किया है, किन्तु ३।२३२ में वेदाध्ययन करने का विधान किया है । ६. ३।१२२ में पितृयज्ञ से श्राद्ध को भिन्न माना है, किन्तु अन्यत्र सर्वत्र श्राद्ध को पितृकार्य कहकर दोनों को एक माना है । ३।१२७ में तो पितृयज्ञ को प्रेतकृत्य ही कहा है । ७. ३।१९२ में पितरों को ‘सततं ब्रह्मचारिणः’ कहकर सदा ब्रह्मचारी माना है । ३।२०० श्लोक में पितरों के पुत्रों तथा पौत्रों का वर्णन किया है । क्या सदा ब्रह्मचारियों के भी पुत्र - पौत्र सम्भव हैं । ८. पितर कौन होते हैं, इसके विषय में तो बहुत ही विरोधी वर्णन किया गया है । ३।२२० - २२२ श्लोकों में पूर्वज पिता, पितामहादि को पितर कहा है और ३।२०१ में ऋषियों से पितरों की उत्पत्ति ३।१९४ में मरीची आदि ऋषियों के पुत्रों को पितर माना है । यदि सोमसदादि ऋषि - पुत्र ही पितर हैं तो पूर्वज पिता, पितामहादि जो ऋषि - पुत्र नहीं हैं, उनको पितर कहना निरर्थक है । यदि यह कहा जाये कि सब मनुष्य ऋषियों की ही सन्तान हैं, तो चारों वर्णों के (३।१९४ - १९९) अग्निवष्वात्तादि भिन्न - भिन्न पितर होने का क्या कारण है ? और ३।२८४ में वसुओं को पितर, रूद्रों को पितामह और आदित्यों को प्रपितामह कहकर कौन से पितर माने हैं ? अतः इस विभिन्नता से पितरों का निर्णय करना सम्भव ही नहीं है । ९. ३।१३८ में श्राद्ध में मित्र को जिमाने का निषेध किया है, किन्तु ३।१४४ में जिमाने का विधान किया है । १०. ३।१२५ में कहा है कि पितृश्राद्ध में धनसम्पन्न व्यक्ति भी विस्तार, न करे । केवल एक - एक अथवा तीन ब्राह्मणों को जिमावे । किन्तु ३।१४८ में नान, मामा, सास, श्वसुर, गुरू, दौहित्रादि को जिमाने का तथा ३।२६४ में ब्राह्मणों के बाद रिश्तेदारों तथा जातिवालों को जिमाने का विधान किया है । क्या विस्तार का निषेध करके यह विस्तार का ही विधान नहीं है ? ११. यदि ३।२२० - २२२ श्लोकानुसार पूर्वज ही पितर हैं, और ३।१२७ के अनुसार प्रेतकृत्य ही श्राद्ध है, तो मरने के पश्चात् पितर तो कर्मानुसार योनियों में चले जाते हैं, फिर वे श्राद्ध के समय कैसे आ सकते हैं ? सशरीर आते हैं, या बिना शरीर के ? सशरीर आते हैं, तो दिखाई क्यों नहीं देते ? यदि बिना शरीर के आते हैं, तो जिस घर में वे शरीर को छोड़कर आते हैं, क्या उस घर के व्यक्ति मुर्दा समझकर शव को जलाते नहीं ? क्या उन्हें भी श्राद्ध का ज्ञान रहता है ? यदि रहता है, तो आजकल भी रहना चाहिये ? अन्यथा शव को जलाने के बाद श्राद्ध को खाकर पितर - जीव कहाँ जाते हैं ? इत्यादि अनेक भ्रान्तियाँ इस मिथ्या मान्यता से उत्पन्न होती हैं ? जिन का समाधान इस मान्यता को मानने वालों के पास कोई नहीं है । और ३।१८९ में लिखा है कि श्राद्ध में पितर ब्राह्मणों के पीछे - पीछे चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं । क्या बिना शरीर के चलना बैठनादि क्रियायें सम्भव हैं ? और ३।२५० में कहा है कि यदि श्राद्ध में ब्राह्मण शूद्रा स्त्री का संग करता है, तो पितर उस स्त्री के मल में महीना भर पड़े रहते हैं । क्या यह महान् अन्याय नहीं कि दुष्कर्म कोई करे और उसका फल पितर भोगें ? और ३।१९६ में सांपों को भी पितर मानना क्या उपहास्यास्पद नहीं है ? (च) इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त, बुद्धिविरूद्ध अशास्त्रीय बातें भी कम नहीं हैं । कतिपय उदाहरण देखिये - १. ३।१४६ में लिखा है - श्राद्ध में ब्राह्मण को जिमाने से सात पीढ़ियों तक के पितरों की तृप्ति हो जाती है । यह सात पीढ़ियों की ही सीमा क्यों ? सभी पूर्वजों की कह देना चाहिये था! यथार्थ में भोजन कोई करे और तृप्ति दूसरे की हो जाये, यह कथन ही मिथ्या है । २. ३।१७७ में कहा है - श्राद्ध में ब्राह्मण को जिमाते हुओं को यदि अन्धा व्यक्ति देख लेता है तो ९० वेदपाठियों को जिमाने का फल नष्ट हो जाता है । यह कितनी विचित्र बात है, क्या अन्धा पुरूष भी देख सकता है ? और देखने मात्र से किसी पुण्यापुण्य कर्म का फल कैसे नष्ट हो सकता है ? ३. ३।१७८ में कहा है - शूद्र - याजक के स्पर्श से ही दान का फल नष्ट हो जाता है । ३।१७९ में कहा है - लोभवश ब्राह्मण दान लेकर शीघ्र नष्ट हो जाता है । ३।१९० श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण भोजन न खाये तो सूकर योनि में जाता है । ३।१९१ में श्राद्ध में जीमने वाले ब्राह्मण को शूद्रा के साथ संग करने पर दाता के समस्त दुष्कर्मों का फल मिलता है । ३।२०५ में दैवकर्म के प्रारम्भ में श्राद्ध करने वाला कुलसहित नष्ट हो जाता है । ३।२३० में श्राद्ध - अन्न में पैर से स्पर्श होने पर राक्षसों द्वारा अपहरण करना । ३।२४९ में श्राद्ध का झूठा अन्न शूद्र को देने से कालसूत्र नामक नरक में जाना, इत्यादि अतिशयोक्ति पूर्ण तथा कार्य - कारण भाव सम्बन्ध से रहित बातों को कौन बुद्धि - जीवी स्वीकार कर सकता है ? स्पर्शमात्र से फल कानष्ट होना , दूसरे के कर्म का फल दूसरे ने भोगना, और कल्पित नरकादि काभय दिखाना उदरम्भरी ब्राह्मणों की पोप लीला मात्र ही कहनी चाहिये । ४. जब श्राद्ध को प्रक्षेपक ने प्रेतकर्म माना है, तो क्या मृत - पितरों से किसी वर की प्राप्ति हो सकती है ? ३।२५८ - २५९ में कहा है कि ब्राह्मणों को जिमाने के बाद यजमान दक्षिण दिशा में मुख करके - ‘दानदाता बढ़ते रहें, कुल में दानादि देने की श्रद्धा बनी रहे’ इस प्रकार के वरों को माँगे । क्या यह निरर्थक वर - याचना नहीं है ? और ३।२६२ - २६३ में कहा है कि यजमान की पत्नी यदि पुत्र चाहती है तो श्राद्ध में बनाये आटे के पिण्डों में से बीच के पिण्ड को खा लेवे । क्या इस प्रकार के कर्म से सन्तान की प्राप्ति हो सकती है, जिसमें कोई कार्य कारण भाव सम्बन्ध नहीं है ? ५. ३।२०१ में कहा है कि पितरों से देव व मनुष्यों की उत्पत्ति होती है और देवों से जड़ - चेतन जगत् की उत्पत्ति होती है । इस जगत् को परमेश्वर प्रकृति से बनाता है और वह कभी जन्मादि धारण नहीं करता । इस सत्य मान्यता के विरूद्ध प्रकृति आदि साधनों के बिना देवों ने सृष्टि को कैसे बनाया ? क्या ये परमेश्वर से भिन्न हैं ? भिन्न हैं तो भिन्न - भिन्न देवों की सृष्टि - रचना भिन्न - भिन्न होनी चाहिये । किन्तु सृष्टि में एकरूपता तथा एक व्यवस्था से स्पष्ट है कि इसको बनाने वाला एक ही है । और जो स्वयं पितरों से उत्पन्न हुए हैं, वे सृष्टि को कैसे बना सकते हैं ? और चेतन जीवात्मा एक शाश्वत सत्ता है, किन्तु यहाँ उनको भी बनाने की बात कही है, यह कितनी असम्भव बात है ? ६. ३।२६८ - २७२ तक भिन्न - भिन्न पशुओं के मांस से जो पितरों की तृप्ति लिखी है, वह कैसी विषम है । किसी से महीने भर, किसी से त्रैमासिक, किसी से वर्ष भर और किसी से अनन्तकाल तक तृप्ति लिखी है । लोक में हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों से कुछ समय तक ही तृप्ति होती है । एक दिन में भी अनेक प्रकार के भोजन खाना होता है । पहले तो श्राद्ध में पितर आ नहीं सकते और उन्हें विभिन्न प्रकार के मांसों से विभिन्न प्रकार की तृप्ति करना केवल मांसाहारी वाममार्गी मनुष्यों से स्वार्थवश लीला की गई है । अथवा स्वार्थी ब्राह्मणों ने यह पोपलीला लिखी है । ७. ३।२१७ श्लोक में छः ऋतुओं तथा मृत - पितरों को नमस्कार करने की बात भी मिथ्या है । ऋतुओं को नमस्कार करना निरर्थक है और जो इस लोक में नहीं रहे, उन मृत - पितरों को नमस्कार करना भी व्यर्थ है । क्यों कि नमस्कार का अर्थ सत्कार करना है, इस अर्थ की इनके साथ कोई संगति नहीं है । ८. इसी प्रकार मृतक - श्राद्ध के अनेक भेद माने हैं । जैसे ३।२५४ श्लोक में पितृश्राद्ध, गोष्ठी श्राद्ध, अभ्युदय श्राद्ध तथा दैवश्राद्ध । किन्तु इनका पितृश्राद्ध को छोड़कर नाम - मात्र ही वर्णन है । इन की विधि का वर्णन नहीं किया गया है और श्राद्ध करने के विशेष समय, नक्षत्र तथा तिथियाँ लिखी हैं - जैसे ३।२७३ में वर्षा ऋतु, मघानक्षत्र, त्रयोदशी तिथि को श्राद्ध के लिये उत्तम माना है । ३।२७६ में कृष्णपक्ष में दशमी से लेकर पौर्णमासी तक की तिथियाँ श्राद्ध करने में श्रेष्ठ हैं, चतुर्दशी को छोड़कर । ३।२७७ में युग्म (सम) संख्या वाली तिथियों, नक्षत्रों में श्राद्ध करने से सब इच्छायें पूरी होती हैं । ३।२७८ में शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष, पूर्वह्न की अपेक्षा अपराह्न को श्रेष्ठ माना है । और ३।२३६ - २३७ में अत्यन्त - गर्म अन्न को ही पितर खाते हैं । इत्यादि बातें अयुक्तियुक्त, असंगत तथा मिथ्या प्रपंच मात्र ही हैं । क्यों कि मनुसम्मत दैनिक पितृयज्ञ से इनकी कोई संगति नहीं है । (छ) इन मृतक - श्राद्ध के श्लोकों से इनकी अर्वाचीनता के संकेत भी मिलते हैं । क्यों कि इनमें ऐसी - ऐसी मान्यताओं का समावेश है, जिससे स्पष्ट है कि जब से ये मान्यतायें प्रचलित हुई हैं, तब या उसके बाद ही किसी ने इन श्लोकों को इसलिये मिलाया है, क्यों कि मनुस्मृति को सभी प्रामाणिक मानते हैं । देखिये कुछ अवैदिक, मनु से असम्मत, कल्पित मान्यतायें - १. जन्म - जात - वर्णव्यवस्था -मनु ने वर्णव्यवस्था को कर्ममूलक माना है, जन्ममूलक नहीं । परन्तु ३।१५० - १६७ तक जिन चोर, जुआरी, मांस - विक्रयी, व्यापारी, ब्याज से आजीविका चलाने वाला, शूद्रा से विवाह करने वाला, विष देने वाला आदि को भी ब्राह्मण माना है, वह जन्ममूलक ही है । क्यों कि मनु ने ये ब्राह्मण के कर्म ही नहीं माने हैं । शूद्रों के प्रति हीन भावना - मनु ने कर्मानुसार मनुष्यों को वर्णों में बांटा है । किन्तु उनमें ऐसा कहीं भी भाव नहीं है कि जिससे परस्पर घृणाभाव प्रकट होता हो । परन्तु यहाँ ३।२४१ में शूद्र के स्पर्श से ही श्राद्ध अन्न को निष्फल माना है । जब कि मनु तीनों वर्णों के सेवा - कार्य को शूद्र का मानते हैं । क्या सेवा कार्य करने वाला स्पर्शादि से पृथक् रह सकता है ? ३. ‘नरक’ की मिथ्या कल्पना - नरक कोई स्थान विशेष नहीं है । ‘नरक’ दुःख विशेष का ही नाम है । नरकादि पौराणिक कल्पना ही है । यहाँ ३।१७२,३।२४९ श्लोकों में ‘नरक’ को स्थानविशेष माना है और ‘कालसूत्र’ नरक का तो नाम भी लिखा है । इस प्रकार के नरक किसी स्थान विशेष में नहीं हैं । ४. पुराणों का वर्णन - किसी के मरने पर गरूड़ - पुराणादि का पाठ पौराणिक बन्धु करते हैं । वैसा ही यहाँ ३।२३२ में पुराणों के श्राद्ध में पाठ करने का उल्लेख किया गया है । और पुराणों के इतिहास से स्पष्ट है कि पुराणों की रचना बहुत ही अर्वाचीन है । ५. प्रेत तथा राक्षस योनियाँ - इन श्लोकों में श्राद्ध को प्रेत कृत्य तो कहा ही है, किन्तु ३।२३० में लिखा है कि श्राद्ध में आसुं गिराने से श्राद्धान्न प्रेतों को मिलता है और पैर से छूने से राक्षसों को । इसी प्रकार (३।१७०) वर्जित ब्राह्मणों को खिलाया अन्न राक्षस खाते हैं । ये प्रेत तथा राक्षस कौन हैं ? क्या मनुष्यों से भिन्न कोई योनि विशेष हैं ? और जिस अन्न को ब्राह्मणों ने खालिया है, उसे पितर, प्रेत तथा राक्षस कैसे खा सकते हैं । क्या ये पेट में कीड़े बनकर खाते हैं ? यह केवल यजमान को भयमात्र दिखाना है कि यदि श्राद्ध में कोई त्रुटि हो गई तो श्राद्धान्न पितरों को नहीं पहुंचेगा । मनु ने कर्म - फल की व्यवस्था में विभिन्न योनियों का परिगणन किया है किन्तु प्रेत - योनि कहीं भी नहीं लिखी है । और जो उत्तम तमोगुणी जीव होते हैं वे राक्षस -हिंसक, पिशाच - अनाचारी जन्म को पाते हैं । किन्तु ये मनुष्यों के ही भेद मात्र हैं । (ज) ये सभी श्लोक जहाँ मनु की मान्यताओं से विरूद्ध, परस्पर विरूद्ध अयुक्तियुक्त, तथा पौराणिक प्रभाव से प्रभावित हैं, वहाँ मनु की शैली से भी विरूद्ध हैं । जैसे ३।१९४ - २०१ में मनु के ही परवर्ती वंशजों को ही पितर कहना ३।१५० में ‘मनुरब्रवीत्’ ३।२२२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ इत्यादि पाठों में अपने रचे श्लोकों को मनु के बताने की चेष्टा करना और अतिशयोक्तिपूर्ण फलकथन करना मनु की शैली कदापि नहीं हो सकती । यह अतिशयोक्तिपूर्ण अर्थवाद तथा मनु के नाम से श्लोक कहना ही इन्हें अर्वाचीन सिद्ध करता है । मनु सदृश आप्त पुरूष ऐसी लोकैषणा की भावना वाली अथवा अपना प्रभाव दिखाने वाली बातें कदापि नहीं कह सकते । अतः इन श्लोकों में मनु से विरूद्ध शैली का दिग्दर्शन होने से भी ये परवर्ती प्रक्षिप्त श्लोक हैं ।
 
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