Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो पुरुष केवल अपने ही लिये भोजन करता है वह पाप को भोजन करता है। यज्ञ का बचा हुआ अन्न उत्तम पुरुषों को भोजन करना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो व्यक्ति केवल अपना पेट भरने के लिए ही भोजन पकाता है वह केवल पाप को खाता है अर्थात् इस प्रवृत्ति से स्वार्थ आदि पापभावना ही बढ़ती है यह उपर्युक्त यज्ञों से शेष भोजन ही सज्जनों का अन्न माना गया है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो गृहस्थ केवल अपने ही निमित्त भोजन पकाता है, वह निरा पाप खात है। क्योंकि सद्गृहस्थों के लिये तो बलिवैश्वदेवयज्ञ अतिथियज्ञ और पितृयज्ञ, इन यज्ञों से अवशिष्ट अन्न के ही खाने का विधान है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अघं स केवलं भुंक्ते) वह पुरुष पाप का अन्न खाता है (यः पचति आत्मकारणात्) जो केवल अपने लिये ही पकाता है। (यज्ञशिष्ठाशनं हि एतत्) यह जो यज्ञ से बचा हुआ अन्न है वही (सतां अन्नं) अच्छे पुरुषों का अन्न (विधीयते) कहा जाता है।
अर्थात् गृहस्थ को चाहिये कि केवल अपना पेट पालने के लिये धन-उपार्जन न करे। गृहस्थ के आश्रित तो अन्य सब हैं उनको खिलाना महायज्ञ है। इस यज्ञ को करके जो शेष रहे वही गृहस्थ के लिये पवित्र और धर्म-युक्त भोजन है।