Manu Smriti
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देवानृषीन्मनुष्यांश्च पितॄन्गृह्याश्च देवताः ।पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थः शेषभुग्भवेत् 3/117

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, और भूत इन सबके निमित्त यज्ञ करके और सब के भोजनोपरान्त जो शेष रहे उसे गृहस्थ भोजन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. विद्वानों का मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों का तथा परमात्मा का (ब्रह्मयज्ञ - वेद के स्वाध्याय तथा सन्ध्योपासना से) अतिथियों का जीवित माता - पिता आदि का (पितृयज्ञ से) और गृहस्थ के भरण - पोषण की अपेक्षा रखने वाले असहाय, अनाथ, कुष्ठी भृत्यादि का (बलिवैश्वदेवयज्ञ से) सत्कार करके गृहस्थ पुरूष उसके बाद पंच्चमहायज्ञों से बचे भोजन को खाने वाला बने ।
 
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