Manu Smriti
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उपासते ये गृहस्थाः परपाकं अबुद्धयः ।तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनः 3/104

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो गृहस्थ मूर्खतावश बिना उद्यम किये दूसरों का भोजन खाते हैं वह आगामी जन्म में उस अन्न दाता के पशु होते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यदि गृहस्थ होके पराये घर में भोजनादि की इच्छा करते हैं तो वे बुद्धिहीन गृहस्थ अन्य से प्रतिग्रह रूप पाप करके जन्मान्तर में अन्नादि के दाताओं के पशु बनते हैं क्यों कि अन्य से अन्न आदि का ग्रहण करना अतिथियों का काम है, गृहस्थों का नहीं । (सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘ब्राह्मणों का काम अध्यापन है, उसी तरह उनकी जीविका अध्यापन, योजनादि कार्यों की दक्षिणा से होती है । व्यर्थ प्रतिग्रह लेना अप्रशस्त ही है ।’’ (पू० प्र० ९२) टिप्पणी :
श्लोक ९४ से १०८ तक के विषय में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवीं अतिथिसेवा - अतिथि उसको कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक सत्योपदेशक सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान् परमयोगि - संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो उसको प्रथम पाद्य, अर्ध और आचमनादि तीन प्रकार का जल देकर पश्चात् आसन पर सत्कार पूर्वक बिठालकर खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवासुश्रूषा करके, प्रसन्न करे । पश्चात् सत्संग करे । उनसे ज्ञान विज्ञान आदि जिनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे - ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और अपना चाल - चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे ।’’ संस्कार विधि गृहाश्रम के अतिथियज्ञ प्रकरण में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘पांचवाँ जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक पक्षपात रहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा उनसे प्रश्नोत्तर आदि कर के विद्या प्राप्त होना ‘‘अतिथियज्ञ’’ कहाता है, उसको नित्य किया करें ।’’ ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के पंच्चमहायज्ञान्तर्गत अतिथियज्ञ - विधान में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवाँ अतिथियज्ञ अर्थात् जिसमें अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उसको लिखते हैं । जो मनुष्य पूर्ण विद्वान् परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उनको अतिथि कहते हैं । इसमें वेद - मन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं । परन्तु उनमें से दो मन्त्र अथर्ववेद काण्ड १५ के लिखे हैं ।’’
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्योंकि जो गृहस्थ होके पराये घर में भोजनादि की इच्छा करते हैं, वे बुद्धिहीन गृहस्थ उस प्रतिग्रहरूप पाप से जन्मान्तर में अन्नादि-दाताओं के पशु बनते हैं।
 
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