Manu Smriti
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तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता ।एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदा चन 3/101

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तृण (घास), पृथिवी, जल, वाकचातुर्य (मिष्ठभाषण) से उत्तम पुरुषों का घर कभी शून्य नहीं रहता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
बैठने के लिए आसन (भूमिः) बैठने या सोने के लिए स्थान पानी और सत्कारयुक्त मीठी वाणी सत्कार करने की ये बातें या वस्तुएं तो श्रेष्ठ - सभ्य व्यक्तियों के घर में कभी भी नष्ट नहीं होती अर्थात् श्रेष्ठ - सभ्य व्यक्ति इनके द्वारा तो अवश्य ही सत्कार करते हैं ।
टिप्पणी :
श्लोक ९४ से १०८ तक के विषय में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवीं अतिथिसेवा - अतिथि उसको कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक सत्योपदेशक सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान् परमयोगि - संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो उसको प्रथम पाद्य, अर्ध और आचमनादि तीन प्रकार का जल देकर पश्चात् आसन पर सत्कार पूर्वक बिठालकर खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवासुश्रूषा करके, प्रसन्न करे । पश्चात् सत्संग करे । उनसे ज्ञान विज्ञान आदि जिनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे - ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और अपना चाल - चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे ।’’ संस्कार विधि गृहाश्रम के अतिथियज्ञ प्रकरण में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘पांचवाँ जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक पक्षपात रहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा उनसे प्रश्नोत्तर आदि कर के विद्या प्राप्त होना ‘‘अतिथियज्ञ’’ कहाता है, उसको नित्य किया करें ।’’ ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के पंच्चमहायज्ञान्तर्गत अतिथियज्ञ - विधान में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवाँ अतिथियज्ञ अर्थात् जिसमें अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उसको लिखते हैं । जो मनुष्य पूर्ण विद्वान् परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उनको अतिथि कहते हैं । इसमें वेद - मन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं । परन्तु उनमें से दो मन्त्र अथर्ववेद काण्ड १५ के लिखे हैं ।’’
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, गृहस्थ चाहे कितना भी निर्धन क्यों न हो, परन्तु फिर भी सद्गृहस्थों के घर में बैठने को तृणासन, ठहरने को स्थान, पैर मुंह धोने और पीने का जल, और चौथी मधुर तथा सत्य वाणी, इनकी कमी तो कभी रहती भी नहीं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तृणानि) आसन, (भूमिः) स्थान, (उदकं) जल, (वाक् चतुर्थी च सूनृता) मीठी बोली (एतानि अपि सतां गेहे न उच्छिद्यन्ते कदाचन) सत् पुरुषों के घर में इन चार बातों की कमी नहीं होती।
 
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