Manu Smriti
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विद्यातपःसमृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु ।निस्तारयति दुर्गाच्च महतश्चैव किल्बिषात् 3/98
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
विद्वान् तपस्वी ब्राह्मण को भोजन दिया जाता है वह भोजनदाता (अर्थात् ब्राह्मण के मुख की अग्नि में हवन करने वाला) बड़े पापों से विमुक्त हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(३।९५-९८) चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये श्लोक प्रसंग से विरूद्ध हैं । ३।९४ श्लोक में अतिथियज्ञ का वर्णन प्रारम्भ किया है और वही प्रकरण ३।९९ श्लोक में भी है । इनके मध्य में फलकथन परक वर्णन तथा हव्य - कव्य लेने के अधिकारी अनधिकारी की चर्चा मनु की शैली से विरूद्ध तथा अप्रासंगिक है । (ख) मनु की मान्यता के अनुसार वर्णों की व्यवस्था का आधार कर्म है, जन्म नहीं । मनु ने (१।८७-८८) तथा (१०।७४-७६) श्लोकों में ब्राह्मणादि के कर्मों का स्पष्ट वर्णन किया है । जो वेदाध्ययन - अध्यापनादि कर्मों से हीन है, वह ब्राह्मण ही नहीं है । किन्तु (३।९६-९८) श्लोकों में विद्यासहित तथा विद्यारहित जो ब्राह्मणों के भेद किये हैं, वे जन्ममूलक वर्णव्यवस्था के प्रचलन होने के बाद की रचना को स्पष्ट करते हैं । अतः ये मनु की मान्यता के विरूद्ध होने से अर्वाचीन हैं । (ग) और ३।९८ श्लोक में महान् पापों से तारने की बात भी मिथ्या है । मनु ने इस विषय में बहुत ही स्पष्ट (४।२४० तथा १२।३-९ में) कहा है कि प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है । यदि पाप - कर्मों से यज्ञादि के द्वारा मुक्ति सम्भव हो जाये, तो मनु की कर्म - फल व्यवस्था ही निर्मल हो जाये और कर्म - फल ईश्वराधीन न होकर जीवों के आधीन होने से पापकर्मों में वृद्धि ही होने लगे । क्यों कि उसे ईश्वरीय - न्याय का कोई भय तो रहेगा ही नहीं । यज्ञादि कर्मों से अन्तःकरण शुद्धि तो सम्भव है, और आगे पापों से बचा जा सकता है, किन्तु कृत - पापों से छुटकारा नहीं हो सकता । (घ) मनु ने यज्ञों का सामान्य - फल तो कहा है, जैसे - सूनादोष - हिंसा जन्य दोषों में न फंसनादि । किन्तु विशेष फलकथन मनु सम्मत नहीं है । और यदि फलकथन करते तो सबका ही कहते । अतः यहाँ ३।९५ में भिक्षादान का फल ३।९७ में दानफल का न होना, और ३।९८ में पापों से पार होने आदि का कथन निराधार, अयुक्तियुक्त एवं अतिशयोक्तिपूर्ण होने से परवर्ती हैं । टिप्पणी :
श्लोक ९४ से १०८ तक के विषय में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवीं अतिथिसेवा - अतिथि उसको कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक सत्योपदेशक सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान् परमयोगि - संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो उसको प्रथम पाद्य, अर्ध और आचमनादि तीन प्रकार का जल देकर पश्चात् आसन पर सत्कार पूर्वक बिठालकर खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवासुश्रूषा करके, प्रसन्न करे । पश्चात् सत्संग करे । उनसे ज्ञान विज्ञान आदि जिनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे - ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और अपना चाल - चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे ।’’ संस्कार विधि गृहाश्रम के अतिथियज्ञ प्रकरण में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘पांचवाँ जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक पक्षपात रहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा उनसे प्रश्नोत्तर आदि कर के विद्या प्राप्त होना ‘‘अतिथियज्ञ’’ कहाता है, उसको नित्य किया करें ।’’ ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका के पंच्चमहायज्ञान्तर्गत अतिथियज्ञ - विधान में निम्न प्रकार लिखा है - ‘‘अब पांचवाँ अतिथियज्ञ अर्थात् जिसमें अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उसको लिखते हैं । जो मनुष्य पूर्ण विद्वान् परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उनको अतिथि कहते हैं । इसमें वेद - मन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं । परन्तु उनमें से दो मन्त्र अथर्ववेद काण्ड १५ के लिखे हैं ।’’
 
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