Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्राह्मण सदैव इस विधि से सब भूतों को लाभ पहुँचाता है वह ज्ञानी होकर सरल पथ द्वारा मुक्ति प्राप्त करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (३।९३) श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) यह श्लोक प्रसंग को भंग कर रहा है । ३।९२ श्लोक में बलिवैश्वदेवयज्ञ का विधान पूरा हो गया है और ३।९४ में अतिथियज्ञ का वर्णन किया है । इनके मध्य में फलकथनपरक श्लोक वर्णनक्रम को भंग कर रहा है ।
(ख) मनु ने प्रत्येक गृहस्थ - मात्र को, चाहे वह किसी वर्ण का हो, पंच्चयज्ञ (३।६७-७१ तक) प्रतिदिन करने के लिये विधान किया है । यदि यहाँ मनु को फलकथन अभीष्ट होता तो प्रत्येक वर्ण के लिये फलकथन करते । किन्तु यहाँ केवल ब्राह्मण के लिये ही फलकथन करके पक्षपातपूर्ण कथन किया गया है, अतः यह प्रक्षिप्त है ।
(ग) यह श्लोक मनु की शैली से विरूद्ध है । मनु ने पंच्चयज्ञों को आवश्यक बताते हुए सब का सामान्य फलकथन किया है पृथक् पृथक् नहीं । जैसे इससे पूर्व पितृयज्ञ का कोई फलकथन नहीं किया है । अतः यह फलकथन परक श्लोक मनु की शैली से विरूद्ध है ।
(घ) इस श्लोक में केवल बलिवैश्वदेवयज्ञ से ही मुक्ति - प्राप्त की बात कही है । जब कि मनु ने (१२।८२-११६) श्लोकों में अनेक नैःश्रेयस कर्मों से मुक्ति मानी है । यदि एक ही कर्म से मुक्ति हो सकती है, तो दूसरे मुक्तिप्रद कर्मों का वर्णन वैसे ही निरर्थक है, जैसे परीक्षार्थी के लिये अतिरिक्त - विषय निरर्थक होता है । उस विषय को वह ले अथवा नहीं, उससे परीक्षा - पास करने में कोई बाधा नहीं होती । और पंच्चयज्ञों का विधान करते हुए मनु ने लिखा है कि ‘सूनादोषैर्न लिप्यते’ (३।७१) अर्थात् गृहस्थकर्मों को करते हुए जो हिंसाजन्य पाप होते हैं, उनकी निवृत्ति पंच्चयज्ञों से होती है । इससे स्पष्ट है कि इनका न करना पाप है । किन्तु ये यज्ञ मोक्षप्राप्ति में आनुषगिंक ही हैं, मुख्य नहीं । और मोक्ष - प्रकरण में इन कर्मों का परिगणन मनु ने नहीं किया अतः यह श्लोक अत्तिशयोक्तिपूर्ण, पक्षपातपूर्ण तथा प्रसंगविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।