Manu Smriti
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उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद्भद्रकाल्यै च पादतः ।ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत् 3/89

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वास्तु के सर, पाद, मध्य में कर्म से श्री, भद्रकाली, वास्तोप्यति इन सब को देवें।
टिप्पणी :
श्लोक 88 से 91 तक मिलावट ज्ञात होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
सबके द्वारा सेव्य परमात्मा की सेवा से राज्यश्री अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये (‘ओं श्रियै नमः’ से) ईशान कोण की ओर और परमात्मा की कल्याणकारी शक्ति की प्राप्ति के लिए (‘ओं भद्रकाल्यै नमः’ से) पृष्ठभाग अर्थात् नैर्ऋत्य कोण की ओर बलिभाग रखे और ब्रह्म - वेदविद्या की प्राप्ति के लिए वेदविद्या के दाता परमात्मा के लिए, वास्तोषपतिगृहसम्बन्धी पदार्थों के दाता ईश्वर की सहायता के लिए (‘ओं ब्रह्मपतये नमः’ ‘ओं वास्तुपतये नमः’ इन से) घर के मध्यभाग में बलिभाग रखे । ‘‘श्रियै नमः । भद्रकाल्यै नमः । ब्रह्मपतये नमः । वास्तुपतये नमः ।’’ (स० प्र० चतुर्थ समुल्लास)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
‘श्रियै नमः’ से भवन के सिर (उत्तर-पूर्व की ईशान दिशा) की ओर, ‘भद्रकाल्यै नमः’ से भवन के पैर (दक्षिण-पश्चिम की नैर्ऋत्य दिशा) की ओर, ब्रह्मपतये नमः’ तथा ‘वास्तुपतये नमः’ से भवन के मध्य की ओर बलि रखे।
 
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