Manu Smriti
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मरुद्भ्य इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि ।वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत् 3/88

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
द्वारदेश में मारुत को, जलस्थान में जल को, मूसल ओखली के स्थान में वनस्पति को।
टिप्पणी :
श्लोक 88 से 91 तक मिलावट ज्ञात होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. मरूत् - जीवन के संचालक प्राणरूप परमात्मा या वायु के लिए (‘ओं मरूद्भ्यो नमः’ मन्त्र से) द्वार पर सर्वत्र व्याप्त और सम्पूर्ण जगत् के आश्रय रूप परमात्मा के लिए अथवा जीवनदायक जलों के नाम से (‘ओम् अद्भ्यो नमः’ से) जलों में बलि भाग को डाले इसी प्रकार वनस्पतियों के नाम से (‘ओं वनस्पतियों नमः’ से) मूसल और ऊखल के समीप बलि रखे । ‘‘मरूद्भ्यो नमः । अद्भ्यो नमः । वनस्पतिभ्यो नमः ।’’ (सत्यार्थ० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
‘मरुद्भ्यो नमः’ से भवन के मुख्यद्वार की ओ, ‘अद्भ्यो नमः’ से जलस्थान की ओर, और ‘वनस्पतिभ्यो नमः’ से उलूखल-मूसल की ओर बलि रखे।
 
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