Manu Smriti
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कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च ।सह द्यावापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्ततः 3/86

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कुह्वै, अनुमयै, प्रजापतये, द्यावापृथिवी, स्विष्टकृते इन सब के साथ स्वाहा लगाकर आहुति देवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
और अमावस्या की अधिष्ठात्री ईश्वरीय शक्ति अर्थात् कृष्णपक्ष को रचने वाली परमेश्वर की शक्ति के लिए (‘ओं कुह्वै स्वाहा’ मन्त्र से) तथा पूर्णिमा की अधिष्ठात्री ईश्वरीय शक्ति अर्थात् शुक्लपक्ष का निर्माण करने वाली परमेश्वर की शक्ति के लिए या परमेश्वर की चितिशक्ति के लिए (‘ओं अनुमत्यै स्वाहा’ मन्त्र से) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के सामथ्र्य गुण के लिए (‘ओं प्रजापतये स्वाहा’ मन्त्र से) ईश्वर द्वारा उत्पादित द्युलोक और पृथिवी लोक की पुष्टि के लिए (‘ओं सहद्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा’ मन्त्र से) (तथा अन्ततः) और अन्त में अभीष्ट सुख देने वाले ईश्वर गुण के लिए (‘ओं स्विष्टकृते स्वाहा’ मन्त्र से) आहुति देवे ।
टिप्पणी :
इसी श्लोकानुसार सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समु० में निम्न आहुतियाँ कथित हैं - ‘‘कुह्वै स्वाहा । अनुमत्यै स्वाहा । प्रजापतयै स्वाहा । सह द्यावा - पृथिवीभ्यां स्वाहा । स्विष्टकृते स्वाहा । इन प्रत्येक मन्त्रों से एक - एक बार आहुति प्रज्वलित अग्नि में छोड़े ।’’ (स० प्र० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
पहले अग्नि और सोम को अलग-अलग, फिर उन दोनों इकट्ठों को, फिर विश्वदेवों को, फिर धन्वन्तरि को, फिर कुहू को, फिर अनुमति को, फिर प्रजापति को, फिर सह द्यावापृथिवी को, तथा अन्त में स्विष्टकृत् को आहुति देवे।१
टिप्पणी :
. जैसे, अग्नेय स्वाहा। सोमाय स्वाहा। अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा। विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा। धन्वन्तरये स्वाहा। कुह्वै स्वाहा। अनुमतये स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। स्विष्टकृते स्वाहा। आहुतियें खट्टा, लवणमात्र और क्षार को छोड़ कर देनी चाहियें (स० स० ४)
 
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