Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. प्रथम अग्नि - पूज्य परमेश्वर और सोम - सब पदार्थों को उत्पन्न और पुष्ट करके सुख देने वाले सोमरूप परमात्मदेव के लिए (‘ओम् अग्नये स्वाहा’ ‘ओं सोमाय स्वाहा’ इन मन्त्रों द्वारा) और उन्हीं देवों के सर्वत्र व्याप्त रूपों के लिए संयुक्त रूप में (‘ओम् अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा’ इन मन्त्र के द्वारा, अग्नि - जो प्राण अर्थात् सब प्राणियों के जीवन का हेतु है और सोम - जो अपान अर्थात् दुःख के नाश का हेतु है) और विश्वदेवों - संसार को प्रकाशित या संचालित करने वाले ईश्वरीय गुणों के लिए (‘ओं विश्वेभ्यः देवभ्यः स्वाहा’ इस मन्त्र द्वारा) तथा धन्वन्तरि -जन्म - मरण आदि के अवसर पर आने वाले रोगों का नाश करने वाले ईश्वर के गुण के लिए (‘ओं धन्वन्तरये स्वाहा’ इस मन्त्र से) बलिवैश्वदेव यज्ञ में आहुति देवे ।
उसी के आधार पर सत्यार्थ - प्रकाश में निम्न आहुतियों का महर्षि ने कथन किया है -
‘‘होम मन्त्र - ओम् अग्नेय स्वाहा । सोमाय स्वाहा । अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा । विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा । धन्वन्तरये स्वाहा’’
(सत्यार्थ० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
पहले अग्नि और सोम को अलग-अलग, फिर उन दोनों इकट्ठों को, फिर विश्वदेवों को, फिर धन्वन्तरि को, फिर कुहू को, फिर अनुमति को, फिर प्रजापति को, फिर सह द्यावापृथिवी को, तथा अन्त में स्विष्टकृत् को आहुति देवे।१
टिप्पणी :
. जैसे, अग्नेय स्वाहा। सोमाय स्वाहा। अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा। विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा। धन्वन्तरये स्वाहा। कुह्वै स्वाहा। अनुमतये स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। स्विष्टकृते स्वाहा।
आहुतियें खट्टा, लवणमात्र और क्षार को छोड़ कर देनी चाहियें (स० स० ४)