Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पंच महायज्ञों में पितरों के निमित्त जो बलि कर्म कहा है वह यदि न हो सके तो एक या बहुत ब्राह्मणों को भोजन करावें, पर वैश्वदेव निमित्त ब्राह्मण भोजन न करावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (३।८३) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) महर्षि - मनु ने ३।८२ श्लोक में श्राद्ध के विषय में लिखा है कि गृहस्थी पुरूष अपने पितर - माता पितादि बड़े तथा मान्य पुरूषों की प्रसन्नता के लिए प्रतिदिन अन्नादि से, जल, दूध, कन्दमूल एवं फलों से श्राद्ध श्राद्ध से सेवा किया करें । किन्तु इस श्लोक में उससे विपरीत बात कही गई है कि पितरों के निमित्त से एक ब्राह्मण को भोजन खिलावे । यह पूर्वकथन से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । और ब्राह्मण को भोजन कराने से पितरों की प्रसन्नता भी नहीं हो सकती । क्यों कि दूसरे के खाने से दूसरे पुरूष की तृप्ति कदापि सम्भव नहीं है ।
(ख) इस श्लोक से मृतक - श्राद्ध की पुष्टि होती है । जब माता - पितादि मर जाते हैं , तो उनके निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराना इस श्लोक में लिखा है । यह मान्यता मनु की नहीं है । मनु जी ने जीवित पितरों की सेवा के लिए ही विधान किया है और उसे प्रतिदिन करने के लिये लिखा है । और मरने के पश्चात् जीव कर्मानुसार योनियों में चला जाता है, अतः उनकी तृप्ति या सेवा कदापि सम्भव नहीं है । और माता, पिता, पुत्रादि सम्बन्ध शारीरिक हैं । शरीर के नष्ट होने पर कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र ? अतः जीवन - काल में ही श्राद्ध करना वैदिक कर्म है, मृतक का नहीं ।
(ग) और वैश्वदेवयज्ञ का विधान अगले श्लोक से प्रारम्भ कियागया है । वहाँ (३।८४-९२) ब्राह्मण को जिमाने की कोई बात ही नहीं कही, अतः उसका निषेध करना अप्रासंगिक ही है । क्यों कि इस यज्ञ में भूतों के लिये बलि - निकालकर रखने तथा गृह्य - अग्नि में मन्त्र - पूर्वक आहुति का विधान मनु ने किया है । इसलिये मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा अन्तर्विरोध के कारण यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।