Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऋषियों की पूजा स्वाध्याय (वेद पढ़ने) से, देवताओं की पूजा अग्निहोत्र करने से, पितरों की पूजा श्रद्धा से उनकी सेवा करने से, मनुष्य की पूजा अन्नदान से, जीवों की पूजा बलिवैश्वदैव कर्म से कनी चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. स्वाध्याय से ऋषिपूजन यथाविधि होम से देवपूजन श्राद्धों से पितृपूजन अन्नों से मनुष्यपूजन और वैश्वदेव से प्राणी मात्र का सत्कार करना चाहिए ।
(द० ल० ग्र० २३)
टिप्पणी :
‘‘इन श्लोकों से क्या आया कि होम जो है, सो ही देवपूजा है, अन्य कोई नहीं । और होमस्थान जितने हैं, वे ही देवालयादिक शब्दों से लिए जाते हैं ।
पूजा नाम सत्कार । क्यों कि ‘अतिथिपूजनम्’ ‘होमैर्देवानर्चयेत्’ - अतिथियों का पूजन नाम सत्कार करना, तथा देव परमेश्वर और मन्त्र इन्हीं का सत्कार, इसका नाम है पूजा, अन्य का नहीं ।’’
(द० शा० ५४)
‘‘इस कथन से अर्वाचीन देवालय अर्थात् मन्दिरों को कोई न समझे, देवालय का अर्थ तो यज्ञशाला ही है ।’’
(पू० प्र० ६७)
श्राद्ध का अर्थ है - श्रद्धा से किया गया कार्य, जैसे श्रद्धा पूर्वक माता - पिता की सेवा - सुश्रूषा करना, भोजन देना आदि । यही पितरों का तर्पण या पितृयज्ञ है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
गृहस्थ विधिपूर्वक वेदाध्ययन से ऋषियों का सत्कार करे, अग्निहोत्र से वायु जल वनस्पति आदि दिव्यगुणयुक्त देवों की शुद्धि करे, श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा से माता पितादिकों का सत्कार करे, और बलिप्रदान से जीव-जन्तुओं को रक्षा करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(स्वाध्यायेन अर्चयेत् ऋषीन्) स्वाध्याय अर्थात् पठन-पाठन तथा जप आदि करके ऋषियों को प्रसन्न करना चाहिये। (होमैः देवान् यथाविधि) और उचित विधि से होम करके अग्नि, वायु आदि देवों को। (पितन् श्राद्धैः च) भोजन आदि से माता-पिता को। (नन् अन्नैः) अन्न से अतिथियों को, (भूतानि बलि-कर्मणा) और चींटी आदि प्राणी तथा भृत्य आदि नौकरों को भोजन देके।