Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आगामी जन्म से अमिट सुख और यहाँ पर आनन्दित रहने का इच्छुक सदैव गृहस्थाश्रम को धारण करता है, जिस गृहस्थ आश्रम को दुर्बलेन्द्रिय धारण नहीं कर सकते।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. हे स्त्री - पुरूषो! जो तुम अक्षय मुक्ति - सुख और इस संसार के सुख की इच्छा रखते हो तो जो दुर्बलेन्द्रिय और निर्बुद्धि पुरूषों के धारण करने योग्य नहीं है उस गृहाश्रम को नित्य प्रयत्न से धारण करो ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘इसलिए जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे ।’’
(स० प्र० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
१. ‘अक्षय’ इतना ही मात्र है कि जितना समय मुक्ति का है उतने समय में दुःख का संयोग, जैसा विषयेन्द्रिय के संयोगजन्य सुख में होता है वैसा, नहीं होता। (सं० वि० गृहाश्रम)
इसलिए जो मनुष्य मुक्ति-सुख और सांसारिक सुख की इच्छा रखता हो, वह प्रयत्न के साथ गृहाश्रम को सम्यक्तया धारण करे कि जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के अयोग्य है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सः) वह गृहस्थ आश्रम (संधार्यः) भली भाँति धारण करने के योग्य है, (प्रयत्नेन) कोशिश करके (स्वर्गं अक्षयं इच्छता नित्यं) और इस लोक में नित्य सुख की इच्छा करने वाले द्वारा (यः आधार्यः दुर्बल-इन्द्रियैः) जो गृहस्थ आश्रम उन लोगों से धारण नहीं किया जा सकता जो दुर्बल इन्द्रिय हैं।
अर्थात् गृहस्थ आश्रम सब आश्रमों से बड़ा है। दुर्बल लोग इसको धारण नहीं कर सकते। इसलिये जो लोग इस लोक या परलोक में सुख चाहते हैं उनको चाहिये कि गृहस्थ धर्म का पालन यत्न के साथ करें।