Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य देवता, अतिथि, भृत्य और पितरों (वृद्धों) को भोजन नहीं देता वह जीवित दशा में भी मरे के तुल्य है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. जो गृहस्थी व्यक्ति अग्नि आदि देवताओं (हवन रूप में), अतिथियों, भरण - पोषण की अपेक्षा रखने वाले या दूसरों की सहायता पर आश्रित कुष्ठी, भृत्य आदि के लिए माता - पिता, पितामह आदि के लिए (पितृयज्ञ रूप में) और अपनी आत्मा के लिए (ब्रह्म यज्ञ के रूप में) इन पांचों के लिए उनके भागों को नहीं देता है अर्थात् पांच दैनिक महायज्ञों को नहीं करता है वह सांस लेते हुए भी वास्तव में नहीं जीता किन्तु मरे हुए व्यक्ति के समान है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(देवता, + अतिथ, + भृत्यानां पितृणाम् आत्मनः च यः न निवपति पंचानाम्) जो मनुष्य इन पाँचों को भोजन नहीं देता अर्थात् देवों, अतिथियों, नौकरों, माता पिता, तथा अपने आत्मा को (उच्छृवसन् न स जीवति) वह साँस लेता हुआ भी नहीं जीता।
अर्थात् जो पांच महायज्ञ नहीं करता वह मरे हुए के तुल्य है।
टिप्पणी :
श्लोक नं0 52 का यह व्याख्या रूप है।
नोट - बलि का अर्थ है भोजन, न कि मारना। भूतयज्ञ का अर्थ इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया गया अर्थात् भृत्यों को खाना देना।
इसी प्रकार पितृयज्ञ का अर्थ हुआ माता पिता को खाना देना (मरे हुओं को नहीं)। ब्रह्मयज्ञ हुआ ”आत्मा“ को खाना देना। अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना और ईश्वर की उपासना करना। आत्मा की खुराक यही है, रोटी शरीर की खुराक है आत्मा की नहीं। ’नृयज्ञ‘ का अर्थ हुआ अतिथियों को खिलाना, न कि मनुष्यों को मारकर उनकी आहुति देना। देवयज्ञ तो होम स्पष्ट है।
यज्ञ हिंसा के निवारणार्थ है न कि हिंसा करने के लिये। जो लोग यज्ञ का अर्थ कुर्बानी समझते हैं वह भूल करते हैं।