Manu Smriti
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अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् 3/70

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पंच महायज्ञ हैं कि 1-वेद का स्वाध्याय करना और संध्या करना, 2-पितृतर्पण 3-हवन करना 4-बलि देना, 5-अतिथि पूजन, इन सबको क्रमानुसार ब्रह्मयज्ञ, जप तृयज्ञ, भूतयज्ञ, और मनुष-यज्ञ (नरमेध) कहते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
पढ़ना - पढ़ाना, संध्योपासन करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ कहलाता है और माता - पिता आदि की सेवा - शुश्रूषा तथा भोजन आदि से तृप्ति करना ‘पितृयज्ञ’ है प्रातः सांय हवन करना ‘देवयज्ञ’ है कीटों, पक्षियों, कुत्तों और कुष्ठी व्यक्तियों तथा भूत्यों आदि आश्रितों को देने के लिए भोजन का भाग बचाकर देना ‘भूतयज्ञ’ या ‘बलिवैश्वदेवयज्ञ’ कहलाता है अतिथियों को भोजन देना और सेवा द्वारा सत्कार करना ‘नृयज्ञ’ अथवा ‘अतिथियज्ञ’ कहाता है । सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास में यह श्लोक आया है । वहां श्लोकार्थ सरल होने से नहीं दिया है । (सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
१. अध्यापन से अध्ययनाध्यापन दोनों अभिप्रेत हैं (कुल्लूक)। वेद का पढ़ना पढ़ाना ब्रह्मयज्ञ, माता पिता आदिकों की अन्नादि से तृप्ति करना पितृयज्ञ, सांय प्रातः अग्निहोत्र करना देवयज्ञ, कृमि-कीटादि जीवजन्तुओं को बलि देना भूतयज्ञ, और अतिथिजनों का सत्कार करना नृयज्ञ (अतिथियज्ञ) कहलाता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः) पहला ब्रह्मयज्ञ अर्थात् पठन-पाठन तथा जप (पितृयज्ञस्तु तर्पणम्) और दूसरा पितृयज्ञ अर्थात् माता, पिता तथा बड़ों को अपने काय्र्यों से प्रसन्न (तृप्त) करना। (होमोदैवः) तीसरा देवयज्ञ या होम (बलिः भौतः) चौथा भूतयज्ञ अर्थात् अन्य प्राणियों को बलि या खाना देना। (नृयज्ञः अतिथि पूजनम्) पाँचवाँ नरयज्ञ अर्थात् अतिथियों की सेवा करना।
 
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