Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
शिल्प वेद, व्यवहार, शूद्रकन्या से विवाह सन्तान उत्पन्न करने, गऊ आदि जीवों का क्रय-विक्रय (मोल लेना और बेचना) करने से ब्राह्मण सकुल नाश हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(क) ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । विवाहों के भेद, उनके लक्षण तथा विधियाँ, विवाहों के गुण - अवगुणों का वर्णन ३।४२ तक हो गया है । उसके बाद गृहस्थाश्रम में स्त्रियों के साथ व्यवहार का वर्णन ३।६२ तक किया गया और ३।६७ से पंच्चयज्ञों का विधान किया गया है । इनके मध्य में विवाहों के गुण - अवगुणों का पुनः असंगत वर्णन होने से प्रक्षिप्त है ।
(ख) इन श्लोकों में परस्पर भी प्रायः पुनरूक्तियों का ही कथन है, अतः इनको मौलिक नहीं कहा जा सकता । जैसे (३।६३) में ‘क्रियालोपैः पद की ३।६५ में ‘अयाज्ययाजनैः’ ‘नास्तिक्येन कर्मणाम्’ ‘हीनानि मन्त्रतः’ पदों से और ३।६३ में ‘वेदाध्ययनेन’ पद से पुनरूक्ति ही की गई है । मनुसदृश आप्तपुरूष के वचनों में ऐसी पुनरूक्तियों का होना कदापि सम्भव नहीं है ।’
(ग) इन श्लोकों में मनु के दूसरे वचनों से परस्पर विरोध का स्पष्ट वर्णन है । जैसे वर्णों के कर्म - निर्धारण में मनु ने शिल्प, व्यापार, कृषि, पशुरक्षा ये वैश्य के कर्म और राजा की सेवा क्षत्रिय का कर्म माना है । और वर्णानुसार कर्म करने से श्रेष्ठ गतियों का भी वर्णन किया है । किन्तु इन श्लोकों में इन्हीं कर्मों से कुलों का विनाश माना गया है । क्या क्षत्रिय तथा वैश्य अपने - अपने कर्म करते हुए अपने कुलों को नष्ट कर लेते हैं ? अतः ये श्लोक अन्तरविरोध होने से मनु की व्यवस्था से विरूद्ध हैं ।
(घ) और इन चारों श्लोकों में यह कहीं भी नहीं लिखा कि किस वर्ण के कुलों का नाश होता है । क्या सभी वर्णों के कुलों का श्लोकोक्त बातों से नाश हो जाता है ? जब इन श्लोकों में कुछ तो वर्णविशेषों के कर्तव्य कर्म ही हैं और कुछ अकर्तव्य कर्म हैं । क्या कर्तव्य कर्म से कुलों का नाश हो सकता है ? अतः ये श्लोक किसी विवेक रहित पुरूष ने प्रसंगविरूद्ध ही मिलाये हैं ।
तृतीय अध्याय के -
पंच्चमहायज्ञ विषय में प्रक्षिप्त श्लोकों का सहेतुक - विवरण
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(वैवाहिके अग्नौ) विवाह की अग्नि में (कुर्वीत्) करें (गृह्मं कर्म यथाविधि) ठीक ठीक गृहस्थ का काय्र्य (पंच यज्ञ विधानं च) और संध्या हवन आदि पंच यज्ञ (पंक्ति च आन्वाहिकीम्) प्रतिदिन का पकाना आदि (गृही) गृहस्थ पुरुष।
गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि विवाह की अग्नि को जारी रक्खें और सन्ध्या आदि कर्म नित्य करता रहे।