Manu Smriti
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ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा ।पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया 3/45

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
(3) ऋतुकाल में स्त्री से भोग करें किन्तु परस्त्री से भोग न करें। परन्तु अपनी स्त्री से (4) पर्व के दिन ऋतु काल में भोग न करें। यदि स्त्री की इच्छा हो तो बिना ऋतु काल के भी रति करें, यह नियम है। ऋतुकाल में स्त्री के समीप सोवें और यदि सामथ्र्य हो तो भोग अवश्य करें, अन्यथा बड़ा दोष है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
सदा पुरूष ऋतुकाल में स्त्री का समागम करे और अपनी स्त्री के बिना दूसरी स्त्री का सर्वदा त्याग रक्खे, वैसे स्त्री भी अपने विवाहित पुरूष को छोड़कर अन्य पुरूषों से सदैव पृथक् रहे जो स्त्रीव्रत अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री ही से प्रसन्न रहता है जैसे कि पतिव्रता स्त्री अपने विवाहित पुरूष को छोड़ दूसरे पुरूष का संग कभी नहीं करती वह पुरूष जब ऋतुदान देना हो तब पर्व अर्थात् जो उन ऋतुदान के सोलह दिनों में पौर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी वा अष्टमी आवे उसको छोड़ देवे । इनमें स्त्री - पुरूष रतिक्रिया कभी न करें । (सं० वि० गर्भाधान सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
गृहस्थ सदा अपनी ही स्त्री से प्रसन्न रहता हुआ ऋतुगामी होवे। एषं, इस पत्नी-ऋतुगामी-व्रत को धारण करता हुआ रतिकामना से पर्व-रात्रियों (अमावस्या, पूर्णिमा और अष्टमी) को छोड़कर शेष प्रशस्त-रात्रियों में स्त्रीसंग करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(ऋतु-काल-अभिगामी स्यात्) ऋतु काल में ही स्त्री समागम करना चाहिये। (स्वदार निरतः सदा) केवल अपनी ही स्त्री से (पर्ववर्जम्) पर्व के दिनों को छोड़कर (व्रजेत् च एनाम्) उसके साथ समागम करें, (तद्व्रतः) ऐसा व्रत करने वाला (रतिकाम्यया) संभोग की कामना से।
टिप्पणी :
अर्थात् किसी पुरुष को अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर अन्य के साथ समागम न करना चाहिये। अपनी स्त्री के साथ भी पर्व के दिनों में समागम न करें। केवल ऋतुकाल में ही समागम करें।
 
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