Manu Smriti
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शरः क्षत्रियया ग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया ।वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदने 3/44
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
‘क्षत्रिय की कन्या तीर को ग्रहण करे, वैश्य की कन्या चैपाया (घोड़ा बैल आदि) के हाँकने के अस्त्र को, और शूद्र की कन्या कपड़े के कोने को ग्रहण करें (पकड़ें) जब उसका विवाह उच्च जाति के पुरुष से होता हो।’
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
३।४३-४४ ये दोनों श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) मनु ने विवाह के लक्षणों के साथ साथ विवाहों की विधियों का भी कथन कर दिया है । किन्तु इन श्लोकों में विवाहों की विधियाँ फिर से कही गई हैं, अतः पुनरूक्त होने से प्रक्षिप्त हैं । और यहाँ जो विधियाँ लिखी हैं, उनमें पूर्वविधियों से भिन्नता है । क्यों कि ३।२७-३४ तक श्लोकों में सभी वर्णों के लिए समान विधियाँ कहीं हैं, उनमें मनु ने सवर्ण - असवर्ण का कोई भेद नहीं माना है । किन्तु यहाँ असवर्णों के लिए पृथक् वर्णन करना मनु की मान्यता से विरूद्ध है । (ख) और ३।४४ श्लोक में जो विवाह की विधियाँ लिखी हैं वे आठों विवाहों पर चरितार्थ नहीं हो सकतीं । अन्तिम तीन विवाहों के साथ इनकी कोई संगति ही सम्भव नहीं है । क्यों कि गान्धर्व विवाह में स्त्री - पुरूष का स्वेच्छा से संयोग होता है, राक्षस विवाह में अपहरण किया जाता है, और पैशाच विवाह में बलात्कार पूर्वक विवाह होता है । अतः इन विवाहों में इन विधियों का अर्थात् बाण पकड़ना, चाबुक और वस्त्र का किनारा पकड़ना कैसे सम्भव हो सकता है ? (ग) मनु ने विवाहों के लक्षणों के साथ विवाहों की विधियाँ भी लिख दी हैं । क्यों कि विधिभेद से ही ये आठ विवाहों के भेद हुए हैं । तदनन्तर विवाहों के गुणों का विवेचन ३।४२ तक कर दिया है । अब पुनः विवाह की विधियों का उल्लेख करना प्रसंगानुकूल नहीं है । अतः प्रसंगविरूद्ध, मनु की मान्यता के प्रतिकूल तथा अव्यवहार्य (सब विवाहों पर) होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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