Manu Smriti
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दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् ।ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयत्येनसः पितॄन् 3/37
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि ब्राह्म विवाह से पुत्रोत्पत्ति हो और शुभ कर्मों को करे तो दस पुरपा ऊपर के और दस पुश्त नीचे के और इक्कीसवाँ अपने आपको आप से छुड़ाना है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(क) ये श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ३।३४ श्लोक तक विवाहों के लक्षण समाप्त हो गये हैं । इनके बाद उन विवाहों के गुण - दोषों का वर्णन अपेक्षित था, जो कि ३।३९-४२ श्लोकों में किया गया है । इनके बीच में ३।३५ में विवाह की विधि, ३।३७-३८ में अगली पिछली पीढ़ियों को पार करने की बात प्रसंगानुकूल नहीं है । (ख) और ३।३६ में ‘मनुना कीर्तितो गुणः’ कहने से स्पष्ट हो गया है कि यह मनु से भिन्न पुरूष की रचना है । मनु स्वंय अपना नाम लेकर कैसे वर्णन करते ? और इस श्लोक में विवाहों के गुणों का वर्णन करने को कहा है, जब कि इससे अगले श्लोकों में विवाह के गुणों का वर्णन न होकर पुत्रों के गुणों का वर्णन किया गया है । यदि कोई यहाँ यह कहे कि परोक्षरूप में यहाँ विवाहों के गुणों का भी कथन किया गया है, तो फिर ३।३९-४२ श्लोकों में दुबारा वर्णन क्यों किया गया ? अतः ये श्लोक प्रक्षेप के द्वारा की गई प्रतिज्ञा से विरूद्ध तथा मनु की मान्यता से भी विरूद्ध हैं । (ग) मनु ने आठ विवाहों के लक्षणों में विवाहों की विधियों का भी कथन कर दिया है । फिर ३।३५ में जो विवाह की विधि बतायी गई है, वह पुनरूक्त तथा पूर्वविधियों से संगत न होने से प्रक्षिप्त है । (घ) ३।३७-३८ श्लोकों में कहा है, कि एक ही पुत्र अपनी पिछली तथा आगे वाली दश - दश पीढ़ियों को पापों से मुक्त कर देता है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु ने अपनी मान्यता को बहुत ही स्पष्ट करके (४।२४०) लिखा है - ‘एकोऽनुभुड्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्’ । अर्थात् अच्छा या बुरा कर्म जो जीव करता है, वही उस कर्म का फल स्वयं भोगता है । परन्तु यहाँ लिखा है कि एक पुत्र अपनी अनेक पीढ़ियों को पापों से मुक्त कर देता है, यह मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? और इस प्रकार यदि पापों से मुक्ति कर देता है, यह मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? और इस प्रकार यदि पापों से मुक्ति होने लगे तो ईश्वरीय न्याय व्यवस्था तो निर्मल ही हो जायेगी और धर्मकार्यों में अरूचि तथा पापों में वृद्धि स्वतः ही हो जायेगी । जिन पीढ़ियों को पापों से मुक्ति मिल जायेगी, उन्हें धर्म -कर्म करने की क्या आवश्यकता रहेगी ? परन्तु मनु का आदेश तो मानव मात्र को धर्माचरण करने का है ।
 
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