Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण को जल से कन्यादान करना उत्तम है और क्षत्रिय आदि का बिना जल के पारस्परिक इच्छामात्र से केवल वाणी द्वारा कहने से विवाह हो सकता है।
टिप्पणी :
इस विवाह के विषय में बड़ी गड़बड़ी है। क्योंकि बिना वेदोक्त संस्कार के विवाह मान्य नहीं है। यदि इसे मान लें तो संस्कार पन्द्रह ही रह जाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(क) ये श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ३।३४ श्लोक तक विवाहों के लक्षण समाप्त हो गये हैं । इनके बाद उन विवाहों के गुण - दोषों का वर्णन अपेक्षित था, जो कि ३।३९-४२ श्लोकों में किया गया है । इनके बीच में ३।३५ में विवाह की विधि, ३।३७-३८ में अगली पिछली पीढ़ियों को पार करने की बात प्रसंगानुकूल नहीं है ।
(ख) और ३।३६ में ‘मनुना कीर्तितो गुणः’ कहने से स्पष्ट हो गया है कि यह मनु से भिन्न पुरूष की रचना है । मनु स्वंय अपना नाम लेकर कैसे वर्णन करते ? और इस श्लोक में विवाहों के गुणों का वर्णन करने को कहा है, जब कि इससे अगले श्लोकों में विवाह के गुणों का वर्णन न होकर पुत्रों के गुणों का वर्णन किया गया है । यदि कोई यहाँ यह कहे कि परोक्षरूप में यहाँ विवाहों के गुणों का भी कथन किया गया है, तो फिर ३।३९-४२ श्लोकों में दुबारा वर्णन क्यों किया गया ? अतः ये श्लोक प्रक्षेप के द्वारा की गई प्रतिज्ञा से विरूद्ध तथा मनु की मान्यता से भी विरूद्ध हैं ।
(ग) मनु ने आठ विवाहों के लक्षणों में विवाहों की विधियों का भी कथन कर दिया है । फिर ३।३५ में जो विवाह की विधि बतायी गई है, वह पुनरूक्त तथा पूर्वविधियों से संगत न होने से प्रक्षिप्त है ।
(घ) ३।३७-३८ श्लोकों में कहा है, कि एक ही पुत्र अपनी पिछली तथा आगे वाली दश - दश पीढ़ियों को पापों से मुक्त कर देता है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु ने अपनी मान्यता को बहुत ही स्पष्ट करके (४।२४०) लिखा है - ‘एकोऽनुभुड्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्’ । अर्थात् अच्छा या बुरा कर्म जो जीव करता है, वही उस कर्म का फल स्वयं भोगता है । परन्तु यहाँ लिखा है कि एक पुत्र अपनी अनेक पीढ़ियों को पापों से मुक्त कर देता है, यह मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? और इस प्रकार यदि पापों से मुक्ति कर देता है, यह मनुसम्मत कैसे हो सकता है ? और इस प्रकार यदि पापों से मुक्ति होने लगे तो ईश्वरीय न्याय व्यवस्था तो निर्मल ही हो जायेगी और धर्मकार्यों में अरूचि तथा पापों में वृद्धि स्वतः ही हो जायेगी । जिन पीढ़ियों को पापों से मुक्ति मिल जायेगी, उन्हें धर्म -कर्म करने की क्या आवश्यकता रहेगी ? परन्तु मनु का आदेश तो मानव मात्र को धर्माचरण करने का है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अद्भिः एव) जलों से ही (द्विजाग्रयाणाम) ब्राह्मणों का (कन्यादानं विशिष्यते) विवाह श्रेष्ठ है। (इतरेषां तु वर्णानाम्) परन्तु और वर्णों का (इतर-इतर काम्यया) एक दूसरे की इच्छा से।
अर्थात् जल लेकर संकल्प करना ब्राह्मण के लिये परम आवश्यक है। अन्य चाहे जल से संकल्प करें चाहे बिना जल के केवल जबानी ही बातचीत कर सकते हैं।