Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो विवाह जिस वर्ण का धर्म है, जिस विवाह का जो गुणदोष है, जिस विवाह से पुत्रोत्पत्ति होती है, जो गुणागुण है, सो सब आप लोगों से कहेंगे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(क) ये पांच्चों श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । मनु ने ३।२० - २१ श्लोकों में आठ विवाहों के कथन तथा उनके नामों का उल्लेख किया है । उसके बाद इन आठ विवाहों के लक्षणों का वर्णन अपेक्षित है, जो कि ३।२७ श्लोक से आरम्भ किये गये हैं । इनके मध्य में किस वर्ण को कौन सा विवाह करना उचित या अनुचित का वर्णन प्रसंगानुकूल नहीं है । जब तक विवाहों के स्वरूपों का बोध ही नहीं हुआ, उनसे पूर्व ही इन श्लोकों का वर्णन अप्रासंगिक है ।
(ख) मनु ने ३।२० वें श्लोक में आठ विवाहों को चारों वर्णों के लिए हितकर और अहितकर लिखा है । और इनमें प्रथम चार श्रेष्ठ तथा अन्तिम चारों को निन्दित मानकर इन्हें ३।३९-४२ श्लोकों में सभी वर्णों के लिए लिखा है कि प्रथम चार प्रकार के विवाहों से उत्तम - सन्तान पैदा होती है और दूसरों में निन्दित । परन्तु इन पांच्च श्लोकों में मनु की मान्यता से विरूद्ध कथन किया गया है कि पृथक् पृथक् वर्णों के लिए पृथक् पृथक् विवाह निश्चित किये हैं । क्षत्रिय - वैश्यों के लिए (३।२४) निन्दित आसुर और राक्षस विवाहों को भी प्रशस्त कहना मनु की मान्यता के विरूद्ध है ।
(ग) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी है । जिससे स्पष्ट है कि ये श्लोक मनुसदृश आप्त - पुरूष के कदापि नहीं हो सकते । जैसे ३।२३ में कहा है कि ब्राह्मण के लिए प्रारम्भ के छः विवाह, क्षत्रिय के लिए अन्तिम चार विवाह इसी प्रकार वैश्य - शूद्र के लिए राक्षस विवाह को छोड़कर चार विवाह श्रेष्ठ माने हैं । किन्तु ३।२४ में कहा है - ब्राह्मण के लिए प्रथम चार विवाह श्रेष्ठ हैं, क्षत्रिय को राक्षस तथा वैश्य - शूद्र को आसुर विवाह श्रेष्ठ है । और ३।२५ में इन दोनों श्लोकों से भी भिन्न वर्णन है, और ३।२६ में एक अन्य ही प्रकार का विधान है । ये परस्पर विरूद्ध वर्णन एक लेखक के कभी नहीं हो सकते । इनका मिश्रण भिन्न - भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न भिन्न समय में किया है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
(घ) और ३।२१ में आठ विवाहों का नाम पूर्वक कथन किया गया है । इसके बाद इनके लक्षण अपेक्षित थे, किन्तु लक्षण न कहकर ३।२२ श्लोक में कहा गया है - ‘यो यस्य धर्मो वर्णस्य......................तद्वः सर्व प्रवक्ष्यामि .........................।’ यहाँ जब तक एक प्रसंग पूर्णतया नहीं कहा गया उसके पूर्व ही दूसरे प्रसंग की प्रतिज्ञा कोई भी विद्वान् व्यक्ति नहीं कर सकता । अतः प्रसंगविरूद्ध प्रतिज्ञावचन से भी स्पष्ट है कि ये श्लोक अर्वाचीन प्रक्षेप किये गये हैं ।