Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
’शूद्र केवल रब जाति की कन्या का, वैश्य स्वजाति और शूद्र की कन्या का, क्षत्रिय स्वजाति वैश्य और शूद्र की कन्या का ब्राह्मण चारों वर्ण की कन्या का, पाणिग्रहण करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
ये आठ 3।12-19 श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) इन (3।12-13) दोनों श्लोकों में काम-भावना से प्रेरित होकर विवाह का विधान मनुस्मृति की मूल भावना के विरूद्ध है। क्योंकि मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, उस में सब मनुष्यों के लिए एक व्यवस्था का विधान किया है स्वेच्छाप्रेरित कार्यो का नही । और जब मनुष्य कामासक्त हो जाता है, तब उसके लिए यह अवसर ही नही होता कि वह वर्ण की स्त्री से विवाह करे और 3।32 वें श्लोक में कन्या और वर का एक दूसरे की इच्छा से संयोग के लिए मनु ने सवर्ण कन्या से ही विवाह करने का ही आदेश दिया है। अतः यहाँ कामासक्त होकर सब वर्णो को छूट देना मनु की मान्यता से विरूद्ध है।
(ख) यद्यिपि मनु ने सवर्णो में ही विवाह को प्रशस्त माना है, परन्तु इस नियम के अपवाद नियम भी लिखे है, । जैसे- स्त्रीरत्न दुष्कुलादपि (2।213) ओैर स्त्रियो रत्नानि समोदेयानि सर्वतः (2।240) यहाँ श्रेष्ठ स्त्री किसी भी वर्ण की हो, उससे विवाह करने व्यवस्था है। किन्तु यहाँ (2।14-19) श्लोकों में यह पक्षपातपूर्ण वर्णन है कि शुद्रा कन्या से बा्रहा्रण, क्ष़ित्रय का विवाह निन्दित माना है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है। यदि श्रेध्ठ स्त्री शूद्रकुल में है, तो उसका निषेध करना, अपने से निम्न वर्ण की स्त्रियो से विवाह 198को उचित कहना और अपने से उच्चवर्ण की स्त्रियों से विवाह का निषेध करना ये सब बातें मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण दंग से लिखी गई हैं।
(ग) मनु ने जो आठ विवाहो का विधान किया है उनके प्रारम्भ में यह वाक्य लिखा है‘- चतुरर्गमपि वरर्गानां प्रेत्य चेह हिताहितान् (3।20) इससे स्पष्ट है। कि जो आठ प्रकार के विवाह लिखे वे चारों वर्णों के लिए समानरूप से लिखे है। परन्तु यहाँ (3।12-19) जो उससे विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण बातें लिखी है। वे मनु से विरूद्ध हैं।
(घ) इन सभी श्लोकों में शुद्रा के प्रति घृरगा अस्पृश्यता की भावना दिखाई गई हैं जो बहुत ही अर्वाचीन हैं। शूद्रा के सम्पर्क से अपवित्र होना श्वासमात्र लगने से द्धिजाति से भ्रष्ट होना आदि बातें मनु-सम्मत नहीं हैं। क्योकि मनु ने कही भी शूद्रवर्ण के प्रति घृरगा अस्पृश्यतादि भाव प्रकट नही किया हैं। प्रत्युत यह तो लिखा हैं कि अन्त्यादपि परं धर्मम् (2।238) अर्थात् शूद्र से भी अच्छी बातों का ग्रहण कर लेना चाहिये। और शूद्र का कार्य मनु ने तीनो वरर्णों की सेवा करना लिखा हैं। इन वरर्णों के घरादि में रहकर शूद्र जब सेवादिकार्य करेगा तब स्पर्शादि भी हुए बिना नही रह सकता। यदि मनु शूद्र के प्रति घरणाभावादि मानते होते तो शूद्रो को सेवा का कार्य कदापि न देते। और 9। 335 में शूद्र के लिये शुचिः पवित्र तथा शूद्रा के कार्य को (9।334में ) मोक्ष देनेवाले धर्म शब्द से न कहते अतः शूद्र के प्रति घृरणा भावादि मनुसम्मत नही हैं।
(ड) और 3। 18 श्लोक में तो शूद्र के प्रति हीनभावना की पराकाष्ठा ही कर दी है कि यदि शूद्र की प्रधानता में यज्ञ श्राद्धादि कर्म किये जाते हैं। तो उस हव्यकव्य को देव व पितर नहीं खाते। प्रथम तो मनु जन्म से सब को एकजाति शूद्र मानते हैं और जो द्धिजो की गणना मे नहीं आ सकता वह शूद्र होता हैं। अतः जो पठनादिकार्य कर ही नहीं सका वह यज्ञादि कदापि नहीं करा सकता। और इन श्लोकों में मृतकश्राद्ध का वर्णन होने से यह मनुसम्मत नहीं हो सकते क्योकि मनु ने जीवित -पितरों का ही श्राद्ध=श्राद्धा से सेवा करना है। अतः मृतकश्राद्ध का मानना और शूद्र की प्रधानता का यज्ञ होना दोनो ही बातो पौराणिक युग की है।
(च) और देव दो प्रकार के होते है। जड और चेतन। जड अग्नि आदि देवों में यह ज्ञान कहाँ कि इस यज्ञ में जो शाकल्य डाला गया है वह शूद्र ने गेरा है या ब्राहम्णादि ने ? और शूद्र के द्धारा अग्नि में शाकल्य डालने पर यदि अग्नि उसे न जलाये तब तो यह बात सत्य हो सकती है किन्तु यह सर्वथा असम्भव बात ळें और जो मरकर शरीर त्याग कर गये उनका श्राद्ध के समय आना ही सम्भव नहीं क्योकि वे तो कर्मानुसार योनियों में चले जाते है। फिर कौन यह विचार कर सकेगा कि यह श्राद्ध शूद्र ने किया अथवा ब्राहम्णादि ने ?
(छ) और परमात्मा की व्यवस्था तथा रचना मनुष्य मात्र के लिए एक समान है । यदि द्धिजों के मृत-पितर श्राद्ध में खाने आ सकते है। उन्हें भोजनादि की आवश्यकता होती हैं। तो शूद्रवर्ण के मृत-पितरों को भी होनी चाहिये। और शूद्र जब श्राद्ध करेगा क्या उनके पितर उनका खाना नहीं खायेगे ? यथार्थ में यह सब पक्षपातपूर्ण मिथ्या प्रक्षेप अर्वाचीन तथा वेदविरूद्ध होने से मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकता।
(ज) 3।16 वें श्लोक में प्रक्षेप करने वाले ने अत्रि, गौतम, शौनक, और भृगु के मत देकर अपने मत की पुष्टि की है। किन्तु मिथ्या बात स्तय कदापि नही हो सकती। उसने यह विचार नहीं किया कि ये सब ऋषि मनु से बाद के हैं। 1। 35 शलोक में तो अत्रि और भृगु को मनु की सन्तान माना है। परवर्ती मनुष्यों के मत कैसे दिखा सकते थे ? अत्रः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
(भ) ये श्लोक प्रसंगानुकूल भी नहीं हैं। 2। 6-11 श्लोकों में विवाह के लिए त्याज्यकुलों का वर्णन किया गया हैं। इसके बाद वे विवाह कौन से हैं यह कथन अपेक्षित था उससे पूर्व ही किस वर्ण को किस वर्ण में विवाह करना चाहिए यह वर्णन करना असंगत ही है। अतः 3। 11 के बाद 3। 20 शलोक की संगति उचित लगती है।
टिप्पणी :
क) इन (३।१२-१३) दोनों श्लोकों में काम - भावना से प्रेरित होकर विवाह का विधान मनुस्मृति की मूल भावना के विरूद्ध है । क्यों कि मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, उस में सब मनुष्यों के लिए एक व्यवस्था का विधान किया है स्वेच्छाप्रेरित कार्यो का नहीं । और जब मनुष्य काम सक्त हो जाता है, तब उसके लिए यह अवसर ही नहीं होता कि वह किस वर्ण की स्त्री से विवाह करे ? और ३।३२ वें श्लोक में कन्या और वर का एक दूसरे की इच्छा से संयोग होने को गान्धर्व विवाह माना है, किन्तु वह सवर्णों का ही है । ३।४ में द्विजों के लिए मनु ने सवर्ण कन्या से ही विवाह करने का ही आदेश दिया है । अतः यहाँ कामासक्त होकर सब वर्णों को छूट देना मनु की मान्यता से विरूद्ध है ।
(ख) यद्यपि मनु के सवर्णों में ही विवाह को प्रशस्त माना है, परन्तु इस नियम के अपवाद नियम भी लिखे हैं, जैसे - ‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’ (२।२१३) । और ‘स्त्रियो रत्नानि.............समादेयानि सर्वतः’ (२।२४०) यहाँ श्रेष्ठ स्त्री किसी भी वर्ण की हो, उससे विवाह करने की व्यवस्था है । किन्तु यहाँ (२।१४-१९) श्लोकों में यह पक्षपातपूर्ण वर्णन है कि शूद्रा कन्या से ब्राह्मण, क्षत्रिय का विवाह निन्दित माना है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । यदि श्रेष्ठ स्त्री शूद्रकुल में है, तो उसका निषेध करना, अपने से निम्न वर्ण की स्त्रियों से विवाह को उचित कहना और अपने से उच्चवर्ण की स्त्रियों से विवाह का निषेध करना, ये सब बातें मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखी गई हैं ।
(ग) मनु ने जो आठ विवाहों का विधान किया है, उनके प्रारम्भ में यह वाक्य लिखा है - ‘चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्’ (३।२०) इससे स्पष्ट है कि जो आठ प्रकार के विवाह लिखे, वे चारों वर्णों के लिए समानरूप से लिखे हैं । परन्तु यहाँ (३।१२-१९) जो उससे विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण बातें लिखी हैं, वे मनु से विरूद्ध हैं ।
(घ) इन सभी श्लोकों में शूद्रा के प्रति घृणा, अस्पृश्यता की भावना दिखाई गई है, जो बहुत ही अर्वाचीन है । शूद्रा के सम्पर्क से अपवित्र होना, श्वास मात्र लगने से द्विजाति से भ्रष्ट होना आदि बातें मनु - सम्मत नहीं हैं । क्यों कि मनु ने कहीं भी शूद्रवर्ण के प्रति घृणा, अस्पृश्यतादि भाव प्रकट नहीं किया है । प्रत्युत यह तो लिखा है कि ‘अन्त्यादपि परं धर्मम्’ (२।२३८) अर्थात् शूद्र से भी अच्छी बातों का ग्रहण कर लेना चाहिये । और शूद्र का कार्य मनु ने तीनों वर्णों की सेवा करना लिखा है। इन वर्णों के घरादि में रहकर शूद्र जब सेवादिकार्य करेगा, तब स्पर्शादि भी हुए बिना नहीं रह सकता । यदि मनु शूद्र के प्रति घृणाभावादि मानते होते तो शूद्रों को सेवा का कार्य कदापि न देते । और ९।३३५ में शूद्र के लिये ‘शुचिः - पवित्र’ तथा शूद्र के कार्यों को (९।३३४ में) मोक्ष देने वाले ‘धर्म’ शब्द से न कहते । अतः शूद्रों के प्रति घृणा - भावादि मनुसम्मत नहीं हैं ।
(ड) और ३।१८ श्लोक में तो शूद्र के प्रति हीनभावना की पराकाष्ठा ही कर दी है कि यदि शूद्र की प्रधानता में यज्ञ, श्राद्धादि कर्म किये जाते हैं, तो उस हव्यकव्य को देव व पितर नहीं खाते । प्रथम तो मनु जन्म से सब को एकजाति शूद्र मानते हैं और जो द्विजों की गणना में नहीं आ सकता, वह शूद्र होता है । अतः जो पठनादिकार्य कर ही नहीं सका, वह यज्ञादि कदापि नहीं करा सकता । और इन श्लोकों में मृतकश्राद्ध का वर्णन होने से यह मनुसम्मत नहीं हो सकते क्यों कि मनु ने जीवित - पितरों का ही श्राद्ध - श्रद्धा से सेवा करना कहा है । अतः मृतकश्राद्ध का मानना और शूद्र की प्रधानता का यज्ञ होना दोनों ही बातें पौराणिक युग की हैं ।
(च) और देव दो प्रकार के होते हैं जड़ और चेतन । जड़ अग्नि आदि देवों में यह ज्ञान कहाँ कि इस यज्ञ में जो शाकल्य डाला गया है, वह शूद्र ने गेरा है, या ब्राह्मणादि ने ? और शूद्र के द्वारा अग्नि में शाकल्य डालने पर यदि अग्नि उसे न जलाये, तब तो यह बात सत्य हो सकती है, किन्तु यह सर्वथा असम्भव बात है । और जो मरकर शरीर त्याग कर गये, उनका श्राद्ध के समय आना ही सम्भव नहीं, क्यों कि वे तो कर्मानुसार योनियों में चले जाते हैं, फिर कौन यह विचार कर सकेगा कि यह श्राद्ध शूद्र ने किया अथवा ब्राह्मणादि ने ?
(छ) और परमात्मा की व्यवस्था तथा रचना मनुष्य मात्र के लिए एक समान है । यदि द्विजों के मृत - पितर श्राद्ध में खाने आ सकते हैं, उन्हें भोजनादि की आवश्यकता होती है, तो शूद्रवर्ण के मृत - पितरों को भी होनी चाहिये । और शूद्र जब श्राद्ध करेगा, क्या उनके पितर उनका खाना नहीं खायेंगे ? यथार्थ में यह सब पक्षपातपूर्ण मिथ्या प्रक्षेप अर्वाचीन तथा वेदविरूद्ध होने से मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकता ।
(ज) ३।१६ वें श्लोक में प्रक्षेप करने वाले ने अत्रि, गौतम, शौनक और भृगु के मत देकर अपने मत की पुष्टि की है । किन्तु मिथ्या बात सत्य कदापि नहीं हो सकती । उसने यह विचार नहीं किया कि ये सब ऋषि मनु से बाद के हैं । १।३५ श्लोक में तो अत्रि और भृगु को मनु की सन्तान माना है । परवर्ती मनुष्यों के मत मनु कैसे दिखा सकते थे ? अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
(झ) ये श्लोक प्रसंगानुकूल भी नहीं हैं । २।६-११ श्लोकों में विवाह के लिए त्याज्यकुलों का वर्णन किया गया है । इसके बाद वे विवाह कौन से हैं, यह कथन अपेक्षित था, उससे पूर्व ही किस वर्ण को किस वर्ण में विवाह करना चाहिए, यह वर्णन करना असंगत ही है । अतः ३।११ के बाद ३।२० श्लोक की संगति ही उचित लगती है ।