Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि ।कामतस्तु प्रवृत्तानां इमाः स्युः क्रमशोऽवराः 3/12
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तीनों वर्णों को स्वजाति की कन्या ही से विवाह करना सर्वोत्तम है। और यदि कामवश अन्य जाति की कन्या को वरे तो निम्नांकित रीति से पाणिग्रहण करना उत्तम होगा।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
क) इन (३।१२-१३) दोनों श्लोकों में काम - भावना से प्रेरित होकर विवाह का विधान मनुस्मृति की मूल भावना के विरूद्ध है । क्यों कि मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, उस में सब मनुष्यों के लिए एक व्यवस्था का विधान किया है स्वेच्छाप्रेरित कार्यो का नहीं । और जब मनुष्य काम सक्त हो जाता है, तब उसके लिए यह अवसर ही नहीं होता कि वह किस वर्ण की स्त्री से विवाह करे ? और ३।३२ वें श्लोक में कन्या और वर का एक दूसरे की इच्छा से संयोग होने को गान्धर्व विवाह माना है, किन्तु वह सवर्णों का ही है । ३।४ में द्विजों के लिए मनु ने सवर्ण कन्या से ही विवाह करने का ही आदेश दिया है । अतः यहाँ कामासक्त होकर सब वर्णों को छूट देना मनु की मान्यता से विरूद्ध है । (ख) यद्यपि मनु के सवर्णों में ही विवाह को प्रशस्त माना है, परन्तु इस नियम के अपवाद नियम भी लिखे हैं, जैसे - ‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’ (२।२१३) । और ‘स्त्रियो रत्नानि.............समादेयानि सर्वतः’ (२।२४०) यहाँ श्रेष्ठ स्त्री किसी भी वर्ण की हो, उससे विवाह करने की व्यवस्था है । किन्तु यहाँ (२।१४-१९) श्लोकों में यह पक्षपातपूर्ण वर्णन है कि शूद्रा कन्या से ब्राह्मण, क्षत्रिय का विवाह निन्दित माना है । यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । यदि श्रेष्ठ स्त्री शूद्रकुल में है, तो उसका निषेध करना, अपने से निम्न वर्ण की स्त्रियों से विवाह को उचित कहना और अपने से उच्चवर्ण की स्त्रियों से विवाह का निषेध करना, ये सब बातें मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखी गई हैं । (ग) मनु ने जो आठ विवाहों का विधान किया है, उनके प्रारम्भ में यह वाक्य लिखा है - ‘चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्’ (३।२०) इससे स्पष्ट है कि जो आठ प्रकार के विवाह लिखे, वे चारों वर्णों के लिए समानरूप से लिखे हैं । परन्तु यहाँ (३।१२-१९) जो उससे विरूद्ध तथा पक्षपातपूर्ण बातें लिखी हैं, वे मनु से विरूद्ध हैं । (घ) इन सभी श्लोकों में शूद्रा के प्रति घृणा, अस्पृश्यता की भावना दिखाई गई है, जो बहुत ही अर्वाचीन है । शूद्रा के सम्पर्क से अपवित्र होना, श्वास मात्र लगने से द्विजाति से भ्रष्ट होना आदि बातें मनु - सम्मत नहीं हैं । क्यों कि मनु ने कहीं भी शूद्रवर्ण के प्रति घृणा, अस्पृश्यतादि भाव प्रकट नहीं किया है । प्रत्युत यह तो लिखा है कि ‘अन्त्यादपि परं धर्मम्’ (२।२३८) अर्थात् शूद्र से भी अच्छी बातों का ग्रहण कर लेना चाहिये । और शूद्र का कार्य मनु ने तीनों वर्णों की सेवा करना लिखा है। इन वर्णों के घरादि में रहकर शूद्र जब सेवादिकार्य करेगा, तब स्पर्शादि भी हुए बिना नहीं रह सकता । यदि मनु शूद्र के प्रति घृणाभावादि मानते होते तो शूद्रों को सेवा का कार्य कदापि न देते । और ९।३३५ में शूद्र के लिये ‘शुचिः - पवित्र’ तथा शूद्र के कार्यों को (९।३३४ में) मोक्ष देने वाले ‘धर्म’ शब्द से न कहते । अतः शूद्रों के प्रति घृणा - भावादि मनुसम्मत नहीं हैं । (ड) और ३।१८ श्लोक में तो शूद्र के प्रति हीनभावना की पराकाष्ठा ही कर दी है कि यदि शूद्र की प्रधानता में यज्ञ, श्राद्धादि कर्म किये जाते हैं, तो उस हव्यकव्य को देव व पितर नहीं खाते । प्रथम तो मनु जन्म से सब को एकजाति शूद्र मानते हैं और जो द्विजों की गणना में नहीं आ सकता, वह शूद्र होता है । अतः जो पठनादिकार्य कर ही नहीं सका, वह यज्ञादि कदापि नहीं करा सकता । और इन श्लोकों में मृतकश्राद्ध का वर्णन होने से यह मनुसम्मत नहीं हो सकते क्यों कि मनु ने जीवित - पितरों का ही श्राद्ध - श्रद्धा से सेवा करना कहा है । अतः मृतकश्राद्ध का मानना और शूद्र की प्रधानता का यज्ञ होना दोनों ही बातें पौराणिक युग की हैं । (च) और देव दो प्रकार के होते हैं जड़ और चेतन । जड़ अग्नि आदि देवों में यह ज्ञान कहाँ कि इस यज्ञ में जो शाकल्य डाला गया है, वह शूद्र ने गेरा है, या ब्राह्मणादि ने ? और शूद्र के द्वारा अग्नि में शाकल्य डालने पर यदि अग्नि उसे न जलाये, तब तो यह बात सत्य हो सकती है, किन्तु यह सर्वथा असम्भव बात है । और जो मरकर शरीर त्याग कर गये, उनका श्राद्ध के समय आना ही सम्भव नहीं, क्यों कि वे तो कर्मानुसार योनियों में चले जाते हैं, फिर कौन यह विचार कर सकेगा कि यह श्राद्ध शूद्र ने किया अथवा ब्राह्मणादि ने ? (छ) और परमात्मा की व्यवस्था तथा रचना मनुष्य मात्र के लिए एक समान है । यदि द्विजों के मृत - पितर श्राद्ध में खाने आ सकते हैं, उन्हें भोजनादि की आवश्यकता होती है, तो शूद्रवर्ण के मृत - पितरों को भी होनी चाहिये । और शूद्र जब श्राद्ध करेगा, क्या उनके पितर उनका खाना नहीं खायेंगे ? यथार्थ में यह सब पक्षपातपूर्ण मिथ्या प्रक्षेप अर्वाचीन तथा वेदविरूद्ध होने से मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकता । (ज) ३।१६ वें श्लोक में प्रक्षेप करने वाले ने अत्रि, गौतम, शौनक और भृगु के मत देकर अपने मत की पुष्टि की है । किन्तु मिथ्या बात सत्य कदापि नहीं हो सकती । उसने यह विचार नहीं किया कि ये सब ऋषि मनु से बाद के हैं । १।३५ श्लोक में तो अत्रि और भृगु को मनु की सन्तान माना है । परवर्ती मनुष्यों के मत मनु कैसे दिखा सकते थे ? अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । (झ) ये श्लोक प्रसंगानुकूल भी नहीं हैं । २।६-११ श्लोकों में विवाह के लिए त्याज्यकुलों का वर्णन किया गया है । इसके बाद वे विवाह कौन से हैं, यह कथन अपेक्षित था, उससे पूर्व ही किस वर्ण को किस वर्ण में विवाह करना चाहिए, यह वर्णन करना असंगत ही है । अतः ३।११ के बाद ३।२० श्लोक की संगति ही उचित लगती है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सवर्ण अग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि) द्विजों के विवाह में सबसे उत्तम अपना ही वर्ण है। (कामतः तु प्रवृत्तानाम्) परन्तु जो काम के वश होकर विवाह करें उनके लिये (इमाः स्युः क्रमशः वराः) क्रम से नीचे लिखे श्रेष्ठ हैं। (देखो अगला श्लोक)
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS