Manu Smriti
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तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः ।स्रग्विणं तल्प आसीनं अर्हयेत्प्रथमं गवा 3/3

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
धर्म-कार्यों में प्रसिद्ध ब्रह्मचारी जिसने गुरु द्वारा वेदाध्ययन किया हो जब घर में आवे तो पिता को प्रथम आसन (गद्दी) पर बैठाकर पानी से पूजा करे। क्योंकि ब्रह्मचारी के पास पिता को देने योग्य कोई धन नहीं है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो स्वधर्म अर्थात् यथावत् आचार्य और शिष्य का धर्म है उससे युक्त पिता - जनक वा अध्यापक से ब्रह्मदाय अर्थात् विद्यारूप भाग का ग्रहण और माला का धारण करने वाले अपने पलंग में बैठे हुए आचार्य को प्रथम गोदान से सत्कार करे । वैसे लक्षणयुक्त विद्यार्थी को भी कन्या का पिता गोदान से सत्कृत करे । (स० प्र० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो आचार्य के प्रति व अन्य अपने धर्म से युक्त है और जिसने आचार्य से वेदरूपी दायभाग को ग्रहण कर लिया है, उस मालाधारी और पलङ्ग पर बैठे हुए को, अर्थात् उसे माला पहिना कर और पलङ्ग पर बैठा कर, आचार्य या पिता पहले गोदान से सत्कृत करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
तम्) उस (प्रतीतम्) विख्यात (स्वधर्मेण) अपने धर्मपालन के कारण (ब्रह्मदाय हरम्) विद्यारूपी दायभाग के लेने वाले की (पितुः) पिता के (स्रग्विणम्) माला युक्त को (तल्पे आसीनम्) शय्या पर बैठे हुए को (अर्हयेत् प्रथमं गवा) पहले गाय से पूजन करें।
टिप्पणी :
इस श्लोक में ब्रह्मचारी को पिता के दायभाग का लेने वाला बताया है। तात्पर्य यह है कि जिस ब्रह्मचारी ने धर्मपालन के द्वारा पिता के दायभाग का अपने को अधिकारी बना लिया है, ऐसे ब्रह्मचारी के गले में माला डालकर तथा उसको शय्या पर बिठाल कर गाय देकर उसकी पूजा करनी चाहिये।
 
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