Manu Smriti
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एतेष्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान् ।प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद्देहं आत्मनः ।2/248
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्रह्मचारी हवनेष्टिक है वह गुरु, व गुरु पुत्रादि की अविद्यमानता में (न होने पर) उनके घर और आसन में रहकर अग्नि सेवा करता हुआ अपने को ब्रह्म में लीन हो जाने योग्य बनावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह २।२२३ (२।२४८) वाँ श्लोक निम्न कारण से प्रक्षिप्त है - (क) इस श्लोक में कहा है कि गुरू के मरने पर गुरू - पुत्र, गुरू - पत्नी, आदि के भी न होने पर ब्रह्मचारी अग्नि के पास अपने देह को जीवन - पर्यन्त साधे । यह कथन निरर्थक तथा अन्ध - विश्वास की उपज है । क्यों कि जिस गुरू के पास विद्या पढ़ने गया था, जब उसकी मृत्यु ही हो गई, फिर वहाँ रहना निष्प्रयोजन है । क्यों कि वहाँ पहले गुरू रहते थे, इसलिये अब विद्यार्जन न होते हुए भी वहीं रहना मिथ्या अन्धविश्वास है । और ज्ञानादि के बिना केवल अग्नि के पास बैठने से देह - साधना भी नहीं हो सकती । मनु ने विद्या - प्राप्ति के लिये ऐसा बन्धन नहीं रक्खा है कि जो दूसरा गुरू बनाने में कोई आपत्ति मानी जाये । मनु ने २।११५ - ११६,१२४ श्लोकों में विद्यार्जन के लिये बहुत ही उदारता से लिखा है । और २।११५ में तो विद्य़ा की प्राप्ति सब मनुष्यों से करने के लिये कहा है । अतः यह श्लोक मनु की मान्यता से विरूद्ध, और अन्ध - विश्वास का जनक होने से प्रक्षिप्त है ।
 
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