Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. अनुत्तमां गतिं कांक्षन् शिष्यः उत्तम गति चाहने वाले शिष्य को चाहिए कि वह अब्राह्मणे गुरौ अब्राह्मण गुरू के यहाँ च और अन् + अनूचाने ब्राह्मणे सांगोपांग वेदों को न जानने वाले ब्राह्मण गुरू के समीप भी आत्यन्तिकं वासं न वसेत् आजीवनपर्यन्त निवास न करे क्यों कि इनके पास शिष्य की उन्नति रूक जाती है, सांगोपांग वेदों के ज्ञाता विद्वान् के पास रहकर ही उन्नति की उत्तम गति तक पहुंच सकता है ।