Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मनुष्य के उत्पन्न होने में जो क्लेश माता पिता सहन करते हैं उसका प्रतिफल (बदला) सौ वर्ष के उपकार करने से भी नहीं हो सकता। यह सब देवता स्वरूप हैं इनका अपमान कभी न करना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (२।१९९ - २१२ (२।२२४ - २३७)) १४ श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) २।१९९ वें श्लोक में विभिन्न आचार्यों के मत दिखाये हैं - किसी ने धर्म - अर्थ को श्रेयः - कल्याणकारक माना है , किसी ने काम - अर्थ को , किसी ने धर्म को, और किसी ने अर्थ को ही श्रेयस्कर माना है । यह मान्यता मनु के कथन से विपरीत है । मनु ने सर्वत्र धर्म को ही मुख्य माना है और यहां तक लिखा है - ‘‘परित्यजेत् अर्थकामौ यौ स्यातां धर्म वर्जितौ’’(४।१७६) धर्म से रहित अर्थ - काम का परित्याग ही कर देना चाहिये । और धर्म के ज्ञान के विषय में लिखा है - अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते अर्थात् जो अर्थ - काम में आसक्त नहीं हैं, उन्हें ही धर्म का ज्ञान हो सकता है । फिर मनु ‘अर्थ - काम को अथवा ‘अर्थ’ को ही श्रेयस्कर मानने वालों के मत कैसे दिखा सकते हैं ? और ‘परमतमप्रतिषिद्व स्वमतमेव भवति’ अर्थात् यदि आचार्यों का मत दिखाकर उसका खण्डन नहीं किया है, तो वह भी मत उसका माना जाता है । मनु यदि इन विभिन्न मतों को दिखाते हैं, और खण्डन करते नहीं, तो यह मनु का मत माना जायेगा । किन्तु क्या मनु जैसा विद्वान् परस्पर - विरोधी बातों को कह सकता है ?’
(ख) ये (२।२०० से २।२१२ तक) श्लोक प्रसंगविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । इस द्वितीयाध्याय के वण्र्य विषय ब्रह्मचर्याश्रम में वर्ण - धर्म हैं । यहाँ उन्हीं कत्र्तव्यों का वर्णन होना चाहिये, जिनका पालन ब्रह्मचर्याश्रम में गुरू के पास किया जा सके । किन्तु इन श्लोकों में गृहस्थों के कत्र्तव्यों का उल्लेख किया गया है । जैसे प्रतिदिन माता - पिता का प्रियाचरण (२।२०३), उनकी प्रतिदिन सेवा करना (२।२१०), उनकी आज्ञा लेकर धर्मकार्य करना (२।११), इत्यादि । गुरूकुल में रहने वाला घर से दूर ब्रह्मचारी इन कत्र्तव्यों को कैसे कर सकता है ? और २।२०७ वें श्लोक में तो ‘विजयेत् गृही’ कहकर गृहस्थ का स्पष्ट निर्देश किया गया है । अतः गृहस्थ के कत्र्तव्यों का ब्रह्मचर्याश्रम में वर्णन करना विषय - विरूद्ध है । और २।१९८ श्लोक का सम्बन्ध २।२१३ से संगत होता है, बीच के श्लोंकों से नहीं । क्यों कि दोनों में एक ही विषय का प्रतिपादन है अर्थात् विद्या का ग्रहण निचले वर्ण से भी कर लेना चाहिये । अतः ये श्लोक प्रसंग - विरूद्ध हैं ।
(ग) इन श्लोकों में वण्र्य - विषय मनु की दूसरी व्यवस्थाओं से भी विरूद्ध है । मनु ने सब वर्णों तथा सभी आश्रमों में अवश्य पालनीय मानव - धर्मों को परम धर्म माना है । जैसे - इन (१।१०८, २।१४१, ४।१४७) श्लोकों में प्राणायाम, वेदाभ्यासादि को परम - तप कहा है । किन्तु यहाँ माता - पिता - आचार्य की सेवा में ही तप की पूर्णता (२।२०४), इन्हीं के सेवा को परम - धर्म कहना और दूसरे कर्मों को उपधर्म कहना (२।११२), जब तक ये जीवित रहें तब तक दूसरे धर्मकार्यों का निषेध करना (२।२१०), और तीनों की सेवा में ही सब कत्र्तव्यों का पूर्ण मानना (२।११२) इत्यादि बातें अतिशयोक्तिपूर्ण तथा मनुवर्णित दूसरी मान्यता से विरूद्ध हैं । इसी प्रकार २।२०५, २०९ श्लोकों में माता - पिता - आचार्य को ही तीन लोक, तीन वेद, तीन आश्रम, तथा तीन अग्नियाँ कहना भी मनुस्मृति के विरूद्ध है । यदि ऐसा मान लिया जाये तो मनुद्वारा वेद तथा आश्रम - धर्मों को सर्वोपरि मानने की बात मिथ्या हो जाती है और उन की महत्ता तथा वर्णाश्रमवर्मों का वर्णन अनावश्यक ही प्रतीत होता है । और विद्या - ग्रहण के प्रसंग में माता - पिता आदि की सेवा का वर्णन प्रसंग को भी भंग कर रहा है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध, मनु की मान्यता से विरूद्ध तथा अतिशयोक्तिपूर्ण होने और मनु की शैली से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
सन्तानों के उत्पादन और पालन में जो माता पिता को कष्ट सहना पड़ता है, उसका निराकरण सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।