Manu Smriti
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अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनं एव च ।गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम् ।2/211
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गुरु पत्नी के शरीर में तेल व उबटन न लगावें, और न स्नान करावें, न बाल सुखावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (२।१८२ - १८६ (२।२०७ - २११)) पांच्च श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) २।१८२ से १८४ श्लोकों में गुरूपुत्र के साथ गुरू जैसा व्यवहार करने की बात कही है । चाहे वह बालक हो, समानायु वाला हो अथवा शिष्य भी क्यों न हो । यह कथन मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने २।९२ में ज्ञान देने वाले का सत्कार करने को कहा है । २।१२४ - १३६ इन श्लोकों में विद्या देने वाले को ही गुरू माना है । किन्तु शिष्य बने गुरू - पुत्र के सत्कार की बात मनुसम्मत नहीं हो सकती । इस कथन से जन्म मूलक परम्परा की बात झलकती है । मनु ने सर्वत्र जन्म से किसी को सत्कार देने की बात नहीं कही है । (ख) २।१८५ में सवर्ण अथवा असवर्ण गुरू - पत्नियों के सत्कार की बात कही है । गुरू - पत्नी का सत्कार अवश्य करना चाहिये, किन्तु यहाँ एक अवैदिक - मान्यता बहुपत्नी प्रथा का निर्देश किया है, यह मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकती । मनु ने सर्वत्र एकपत्नीव्रत का ही निर्देश किया है । ‘सन्तुष्टो भार्यया भत्र्ता’ इत्यादि श्लोकों में सर्वत्र एकवचन का ही निर्देश है । और वान - प्रस्थाश्रम में ‘पुत्रेषु भार्या निक्षिप्य’ यहाँ भी एकवचन का पाठ है । और ५।१५८ में ‘यो धर्म एकपत्नीनाम्’ कहकर एक पत्नीव्रत को ही उत्तम माना है । अतः यहाँ गुरू की अनेक पत्नियों की बात मनु की मान्यता से विरूद्ध है । (ग) मनु ने ३।४ में कहा है - ‘उद्वहेत द्विजो भार्या’ सवर्णा लक्षणान्विताम्’ अर्थात् द्विज शुभ लक्षणों वाली सवर्णा कन्या से विवाह करे । किन्तु २।१८५ में गुरू की सवर्णा तथा असवर्णा स्त्रियों के आदर की बात कही है । यह परस्पर विरोधी कथन मान्य नहीं हो सकता । क्या गुरू को द्विजों के कत्र्तव्य नहीं पालने चाहिये ? जो वह असवर्णा स्त्रियों से विवाह कर सके । (घ) और मनु ने ब्रह्मचर्य - नियमों में (२।१५२,१५४ में) स्त्रियों का दर्शन करना, स्पर्शन आदि का सर्वथा निषेध किया है । फिर यहाँ (२।१८६ में) गुरू - पत्नी को उबटन लगाना, स्नान कराना, उसके शरीर के दबानादि का प्रश्न ही नहीं उठता । अतः यहाँ जो इन कामों का निषेध किया है, वह परवर्ती होने से प्रक्षिप्त ही है । यथार्थ में गुरू के सम्मान का ही मनु ने निर्देश किया है । गुरू - पत्नी, गुरू - पुत्र, तथा गुरू के अन्य सम्बन्धियों के सन्मान की बात मनु की नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने ऐसी व्यवस्था कहीं भी नहीं मानी । ऋत्विक्, आचार्य, उपाध्याय आदि का भी मनु ने वर्णन किया है , किन्तु उनके पारिवारिक जनों का नहीं । अतः गुरू के परिवार के सन्मानादि की बात मौलिक नहीं है । और मनु ने इसीलिये २।१८७ श्लोक में गुरूपत्नी को पर छूकर अभिवादन करने का भी निषेध किया है । अतः ये श्लोक मनु की मान्यता से विरूद्ध है ।
 
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