Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गुरु का सत्व अनृत दोष कहने से गधा और निन्दा करने सक कुत्ता होता है। गुरु का अनुचित धन भोजन करने से कृमि (छोटा कीड़ा) और मत्सर (गुरु की बड़ाई न सह सकने) से कीट (बड़ा कीड़ा) होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
निम्नकारण से यह (२।१७६।२।२०१)वाँ श्लोक प्रक्षिप्त है -
(क) मनु ने १२।९,२५ - ५२,७४ श्लोकों में सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण वाले कर्मों के अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम अथवा तिर्यक्, स्थावर, मनुष्यादि की योनियों को प्राप्त करना माना है । किसी एक ही कर्म से एक योनि विशेष में जाना मनु ने नहीं माना, किन्तु यहाँ एक कर्म से ही योनियों में जाना माना है, यह मनु की शैली तथा मान्यता से विरूद्ध है ।
(ख) २।११७ वें श्लोक में कहा है - ‘सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरूरूच्यते’ अर्थात् जो विप्र अन्न से सत्कार करता है, वह गुरू कहलाता है । यहां गुरू के द्वारा अन्नादि से पालन - पोषण की बात कही है । और इस श्लोक में गुरू के अन्नादि को खाने वाले को ‘कृमि’ योनि में जाने की बात कही है । अतः अन्तर्विरोध होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।