Manu Smriti
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द्विधा कृत्वात्मनो देहं अर्धेन पुरुषोऽभवत् ।अर्धेन नारी तस्यां स विराजं असृजत्प्रभुः । ।1/32
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
फिर परमात्मा ने मनुष्य जाति को स्त्री और पुरुष के रूप में, दो भागों में विभक्त किया। दोनों को मिलाकर विराट् अर्थात् मनुष्य जाति भी कह सकते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।३२ -४१ तक दश श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - वर्तमान मनुस्मृति में सृष्टि - उत्पत्ति का वर्णन दो प्रकार से किया है । एक - परमात्मा ने अव्यक्त प्रकृति से सूक्ष्म से स्थूल करते - करते कारण - कार्यभाव से सृष्टि को बनाया । यह मान्यता तो सब शास्त्रों की होने से मान्य है किन्तु ब्रह्मा से उत्पत्ति मौलिक नहीं हो सकती । क्यों कि प्रथम तो दोनों में परस्पर विरोध है, और दोनों प्रसंगों के श्लोकों का क्रम मेल नहीं खाता । ब्रह्मा से उत्पत्ति का वर्णन कल्पना पर आश्रित होने से अविश्वसनीय है, जैसे ब्रह्मा के आधे देह से १।३२ मे पुरूष और आधे देह से नारी की उत्पत्ति लिखी है । और इन श्लोकों की संगति पूर्वापर श्लोकों के क्रम को भंग करने से नहीं लगती । जैसे १।३१ श्लोक तथा उससे पूर्व श्लोकों में कर्मानुसार वर्णन किया है और १।४२ वें श्लोक में भी वही क्रम चल रहा है । अतः इनके मध्य के ये श्लोक अप्रासंगिक हैं । १।१४-२३ श्लोकों में जगदुत्पत्ति का वर्णन पूर्ण होने से पुनः स्थावर - जंगम जगत् की उत्पत्ति ब्रह्मा से दिखलाना स्पष्ट ही इन श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करता है । और १।३२-४१ श्लोकों को मानने में अन्तर्विरोध भी है । १।७-१३ में परमात्मा को सृष्टि - कर्ता माना है, अब ब्रह्मा से मान कर १।३४-४१ श्लोकों में दशप्रजापतियों को सृष्टि - कर्ता माना है । एक लेखक की पुस्तक में ऐसा पारस्परिक विरोध कदापि नहीं हो सकता । और १।३५-४१ श्लोकों में दश प्रजापतियों से सात मनु उत्पन्न हुए, और उन्होंने स्थावर - जंगम जगत् बनाया । क्या यह समस्त जगत् ऋषि बना सकते हैं ? और सप्त मनुओं ने यक्ष, पिशाच, नाग, सर्प, वानर, मृग, कृमि, कीट, पतंगादि को बनाया, यह कथन तो आश्चर्यजनक ही है ।
 
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