Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दक्षिण कर को चादरें (वस्त्र) में सदैव बाहर रक्खे, साधु की नाईं आचार से रहें, चंचलता-विहीन रहें, और गुरु जब बैठने की आज्ञा दें तब उनके सम्मुख बैठें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
नित्यम् उद्धृतपाणिः स्यात् सदा उद्धृतपाणि रहे अर्थात् ओढ़ने के वस्त्र से दायां हाथ बाहर रखे ओढ़ने के वस्त्र को इस प्रकार ओढ़े कि वह दायें हाथ के नीचे से होता हुआ बायें कंधे पर जाकर टिके, जिससे दायां कन्धा और हाथ वस्त्र से बाहर निकला रहा जाये साधु + आचारः शिष्ट- सभ्य आचरण रखे सुसंयतः संयमपूर्वक रहे ‘आस्यताम्’ इति उक्तः सन् गुरू के द्वारा ‘बैठो’ ऐसा कहने पर गुरोः अभिमुखं आसीत गुरू के सामने उनकी ओर मुख करके बैठे ।