Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि सामथ्र्य हो तो सात दिवस तक भीख न मांगें और अग्नि में हवन न करें। अपकीर्णि नाम व्रत (जो आगे कहेंगे) करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (२।१६२ - १६५ (२।१८७ -१९०)) चार श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) २।१६२ वें श्लोक में प्रायश्चितस्वरूप अवकीर्णिव्रत का वर्णन है, यह इस प्रसंग से विरूद्ध है । मनु ने प्रायश्चित का वर्णन एक पृथक् अध्याय में (११वें में) किया है । और अवकीर्णिव्रत का यहां कोई स्पष्टीकरण भी नहीं है ।
(ख) २।१६१ वें श्लोक की २।१६६ श्लोक से पूर्णतः संगति है और भिक्षा का विषय २।१६० श्लोक में ही समाप्त हो गया है । २।१६१ श्लोक में अग्निहोत्र का वर्णन है । अतः २।१६२ - १६३ में फिर से भिक्षा की बात कहकर अप्रासंगिक वर्णन किया है ।
(ग) इन (२।१६४ - १६५) श्लोकों में मृतक - श्राद्ध का वर्णन है, यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने सर्वत्र जीवित - पितरों (माता - पितादि कों) की सेवा का विधान किया है । ३।८२ श्लोक में पितरों की प्रसन्नता के लिये प्रतिदिन श्राद्ध करने को कहा है । मृतक - पितरों की प्रसन्नता कदापि सम्भव नहीं है । यद्यपि इस श्लोक में ‘मृतक’ शब्द नहीं है , परन्तु पितृकर्म में ब्रह्मचारी के खाने की बात मृतक श्राद्ध में ही सम्भव है । दैनिक जीवित श्राद्ध में यह मान्यता संगत ही नहीं है । क्यों कि जो कर्म द्विजों को प्रतिदिन करना है, उसके लिये पृथक् कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है ।
और २।१६५ में श्राद्ध में ब्राह्मण ही भोजन करे क्षत्रिय, वैश्य नहीं, यह बात भी पक्षपातपूर्ण तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । प्रथम तो प्रकरण ब्रह्मचर्य का चल रहा है । ब्रह्मचर्य के नियमों के वर्णनों में कहीं भी ऐसा वर्णन मनु ने नहीं किया कि ब्राह्मण ऐसा करे, क्षत्रियादि नहीं । इसका कारण स्पष्ट है कि मनु जन्म से वर्ण - व्यवस्था नहीं मानते । ब्रह्मचर्याश्रम में सबके लिये समान नियम हैं । और इस आश्रम की समाप्ति पर गुरू गुण - कर्मानुसार वर्णों का निर्धारण करता है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध और मनु की मान्यता के विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।