Manu Smriti
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दूरादाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्विहायसि ।सायंः प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निं अतन्द्रितः ।2/186

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दूर से लकड़ी लाकर पृथ्वी से ऊपर आकाश में (ऊँचे पर) रक्खें उसी से प्रातः सांय हवन करें। आलस्य न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
दूरात् समिधः आहृत्य दूरस्थान अर्थात् जंगल आदि से समिधाएं लाकर विहायसि संनिदध्यात् उन्हें खुले हवादार स्थान में रख दे ताभिः और फिर उनसे अतन्द्रितः आलस्य रहित होकर सायं च प्रातः सांयकाल और प्रातः काल दोनों समय अग्निं जुहुयात् अग्निहोत्र करे ।
टिप्पणी :
‘‘अग्निहोत्र सायं प्रातः दो काल में करे । दो ही रात - दिन की संधि - वेला हैं, अन्य नहीं ।’’ (स० प्र० तृतीय समु०)
 
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